Book Title: Anitya Bhavna
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 35
________________ आत्मलाभसे वंचित रहता है-इतना ही नहीं, किन्तु वह कृतघ्नताके दोषसे भी दूषित होता है । अत परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना सबके लिये उपादेय और जरूरी है। परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था अर्थात् अरहत अवस्थाम सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्मा स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति आदर सत्काररूप प्रवर्तनके आलम्बनस्वरूप उसकी अरहत अवस्थाकी मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके वीतगगता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणोका प्रतिबिम्ब होती है । उसमें स्थापनानिक्षपसे मत्रोद्वारा परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती है। उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य है, जो उपर वर्णन किया गया है, क्योकि मूर्तिके पूजनसे धातु पाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है, बल्कि मूत्तिके द्वारा परमात्माहीकी पूजा, भक्ति और उपासनाकी जाती है। इमी लिये इस मूर्तिपूजनके जिनपूजन, देवार्चन, जिनार्चा, देवपूजा इत्यादि नाम कहे जात हे आर इसीलिये इस पूजनको साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया है । यथा - "भक्त्याऽर्हत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाकृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥" -चममग्रहश्रावकाचार अ० ९, लोक ४२ । परमात्माकी इस परमशान्त और वीतरागमूर्त्तिके पूजनमें एक बडी भारी खूबी और महत्त्वकी बात यह है कि जो मसारी जीव संसारके मायाजाल और गृहस्थीके प्रपचमे अधिक फसे हुए है, जिनके चित्त अति चचल है और जिनका आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि जो केवल १ अह्मान फरामोशी-किये हुए उपकारको भूल जाना या कृतनता। "अभिमतफल सिद्धरभ्युपाय सुबोव , प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धेर्न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति ॥" -~-गोम्मटसार-टीका।

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