________________ (20) वा सेवा, स्वाध्याय अर्थात् पढ़ना पढाना विचारना आदि, व्युत्सर्ग अर्थात् शरीर में ममता नही रखके, कठिन रोगों में भी उनके प्रतीकार का उपाय न करके आत्मचिंता करते हुए कायोत्सर्ग करना, और ध्यान वा एकाग्र चित्तवृत्ति। (8) त्याग-सर्वप्रकार की उपाधियों और शरीर सम्बन्धी और खानपान सम्बन्धी दोषों का छोडना, तथा, विद्या, भोजन, औषध और अभय इन चार प्रकार के दानों का देना। (9) आकिचन्य-परिग्रह से अर्थात् सब प्रकार की सासारिक सामग्रियो से ममत्व घटाना वा उनका त्याग करना / . (10) ब्रह्मचर्य-ज्ञान वृद्धि के लिये गुरुके कुलमे रहना, ' सर्वथा उसकी आज्ञा मानना, और विषय भोगादिक सर्व प्रकार के सुखादु भोजन आभूषण और शृङ्गारादिक का छोड़ना / 11 लोकभावना।। इस लोक को ऐसा जानना चाहिये कि यह तीन वलयों के मध्य में स्थित है, पवनो से घिरा हुआ है, अनेक प्रकार की वस्तुओं से भरा हुआ और अनादि सिद्ध है / फलतः यह लोक भिन्न 2 जीवादिक द्रव्यों या पदार्थों की रचना है और इन पदार्थों के अपने 2 गुण या स्वभाव है / इन सब में आप एक आत्मद्रव्य है / इस आत्मा का ठीक 2 स्वरूप जानकर और इतर पदार्थों से ममता छोड़ कर आत्मा पर ही विचार करना सर्वोत्तम बात और परमार्थ है / इस के उपरान्त सारे द्रव्यों का यथार्थ खरूप जानना चाहिये, जिस से मिथ्या श्रद्धान दूर हो जाए।