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लेना चाहिये कि शूद्र भी उन समस्त गुणोका पात्र है जो कि, नित्य पूजकके स्वरूपमें वर्णन किये गये हैं और वह ११ वी प्रतिमाको धारण करके ऊचे दर्जेका श्रावक भी होसकता है अत उसके ऊंचे दर्जेके नित्य पूजक हो सकनेमे कोई बाधक भी प्रतीत नही होता । वह पूर्ण रूपसे नित्य पूजनका अधिकारी है । अब जिन लोगोका ऐसा खयाल है कि शद्रोंका उपनीति ( यज्ञोपवीत धारण ) संस्कार नहीं होता और इस लिये वे पूजनके अधिकारी नहीं हो सकते, उनको समझना चाहिये कि पूजनके किसी खास भेदको छोड़कर आमतौरपर पूजनके लिये यज्ञोपवीत ( ब्रह्मसूत्र - जनेऊ ) का होना जरूरी नहीं है । स्वर्गादिकके देव और देवागनाये प्राय सभी जिनेद्रदेवका नित्यपूजन करते है और खास तौर से पूजन कर - नेके अधिकारी वर्णन किये गये है, परन्तु उनका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता । ऐसी ही अवस्था मनुष्यस्त्रियोकी है । वे भी जगह जगह शास्त्रोमे पूजनकी अधिकारिणी वर्णन की गई है। स्त्रियोकी पृजनसम्बविनी असरय कथाओ से जैनसाहित्य भरपूर है। उनका भी यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता । उपर उल्लेख की हुई कथाओमे जिन गज- ग्वाल आदिने जिनेन्द्रदेवका पूजन किया है वे भी यज्ञोपवीत सस्कार सस्कृत ( जनेऊ के बारक ) नहीं थे । इससे प्रगट है कि नित्य पूजकके लिये यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत होना लाजमी और जरूरी नही है और न यज्ञोपवीत पूजनका चिन्ह है। बल्कि वह द्विजोंके व्रतका चिन्ह है । जैसा कि आदिपुराण पर्व ३८-३९-४१ मे, भगवजिन सेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्योंसे प्रगट हे
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"व्रतचिह्नं दधत्सूत्रम्
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व्रतसिद्ध्यर्थमवाऽहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम्
" व्रतचिह्नं भवेदस्य सूत्र मंत्रपुरःसरम
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व्रतचिह्नं च न सूत्रं पवित्र सूत्रदर्शितम् ।"
" व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागत. ।”
वर्त्तमान प्रवृत्ति ( रिवाज ) की ओर देखनेसे भी यही मालूम होता है
कि नित्यपूजनके लिये जनेऊका होना जरूरी नहीं समझा जाता । क्योकि स्थान स्थानपर नित्यपूजन करनेवाले तो बहुत है परंतु यज्ञोपवीत संस्कार से
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