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वकू विगाड़ि परमैं ममता धारि मरोगे तो एकेन्द्रियादिकका देहमैं अपने ज्ञानका नाश करि जड़रूप होय तिष्ठोगे ऐसे मलीन क्लेशसहित देहळू त्यागि क्लेशरहित उज्वल देहमैं जाना तो बड़ा उत्सवका कारण है ॥३॥
सुदत्तं प्राप्यते यस्माद् दृश्यत पूर्वसत्तमैः।भुज्यतेस्वर्भवं सौख्यं
मृत्युभीतिः कुतः सताम्॥४॥ अर्थ-पूर्वकालमै भए गणधरादि सत्पुरुष ऐसे दिखावे हैं जो जिस मृत्युतै भलेप्रकार दिया हुवाका फल पाइये अर खर्गलोकका सुख भोगिये तातै सत्पुरुषकै मृत्युका भय काहेरौं होय । भावार्थ-अपना कर्तव्यका फल तो मृत्यु भये ही पाइए है जो आप छहकायके जीवनिळू अभयदान दिया अर रागद्वेष काम क्रोधादिकका घातकरि असत्य अन्याय कुशील परधनहरणका त्यागकरि परमसंतोष धारणकरि अपने आत्माकू अभयदान दिया ताका फल स्वर्गलोक विना कहां भोगनेमैं आवै सो स्वर्गलोकके सुख तो मृत्यु नाम मित्रके प्रसाद” ही पाईए तातै मृत्यु समान इस जीवका कोऊ उपकारक नहीं यहां मनुष्य पर्यायका जीर्ण देहमैं कौन २ दुःख भोगता कितने काल रहता आर्तध्यान रौद्रध्यानकरि तिर्यंच नरकमैं जाय पड़ता तातें अब