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करके अर्थ- शुचित्व और संतोष का ग्रहण करना यहां तक कि धर्म की सामग्री में भी लोभ और ममत्व का न होना ।
(१) सत्य - सच बोलना वा ऐसा वचन कहना जो सज्जनों को हितकारी हो । कदापि झूठ न बोलना, कठोर तथा असत्य वचन न कहना, चुगली न खाना, दूसरों को दुख देनेवाली बात नहीं कहना, व्यर्थ बकवाद नहीं करना, किसी की हंसी नहीं करना, इत्यादिक सब बाते सत्य में अनुगत है । सारी अवस्थाओं में सच ही बोलो और मिथ्या भाषण कदापि न करो। क्योंकि सत्य ही संसार का सहायक है और सत्य ही धर्म का मूल है ।
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(६) संयम - अपनी इन्द्रयों को वशमें करना । चलने फिरने बैठने में किसी प्रकारका जीवघात न हो जाय । एक तिनके का भी घात नही होवे ऐसे परिणाम रखना ।
(७) तप - दो प्रकार का है बाह्य और आभ्यन्तर ।
(क) बाह्यतप-व्रत व उपवास रखना, थोड़ा खाना, अमुक अन्न अमुक प्रकार से मिलेगा, तो भोजन करेंगे, ऐसी मर्यादा करके रागभाव रहित होकर भोजन करना, जिन से विकार उत्पन्न न हो ऐसे रूखे फीके भोजन करना, ऐसे एकान्त स्थान में सोना बैठना जहा रागभाव के उत्पन्न करनेवाले कोई कारण न हों, और कायक्लेश ।
(ख) आभ्यन्तर तप - प्रायश्चित्त अर्थात् चरित्र के पालन में जो दूषण हुए हैं उन को गुरु के आगे सच्चे मन से प्रकाश करना और दिए हुए दण्ड का संतोष से सहना विनय वा नम्रता, शुश्रूषा