________________
( १४ )
सामान्य भारतीय तथा हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के प्राय सर्व दोष तो इसमे बढे चढे रूप मे पाये ही जाते, उनके अतिरिक्त कई एक अन्य त्रुटियाँ भी हैं। जैन पुस्तक प्रकाशन अभी तक एक लाभदायक व्यवसाय नहीं बन पाया है। उसके यथोचित सुविकसित एव सुव्यवस्थित होने मे अनेक बाधक कारण रहे है। जैन सस्कृति जैसी मर्वा गीण है, उसके दर्शन, साहित्य, कला और विज्ञान जैसे सुविकसित, उत्कृष्ट और व्यापक है, उनके विशेषाध्ययन, शोध खोज एव अनुसधान के लिए एक केन्द्रीय जैन विश्व विद्यालय का होना अत्यन्त आवश्यक था। ऐसे एक विश्व विद्यालय की स्थापना के लिए कई बार कुछ आन्दोलन भी चले, लगभग २५-३० वर्ष पूर्व वरणात्रय-पूज्य प० गणेश प्रसाद जी वर्णी, स्व० बाबा भागीरथ जी वर्णी तथा स्व० प० दीपचद्र जी वर्णी ने जैन विश्वविद्यालय की स्थापना का बीडा उठाया था, किन्तु समाज से उपयुक्त सहायता सहयोग न मिलने के कारण असफल रहे । भारतवर्ष के विद्यमान विश्व-विद्यालयो मे भी जैनाध्ययन की कोई साधन सुविधाए नही है । बनारस के जैन कलचरल रिसर्च इन्स्टीटयूट द्वारा श्वेताम्बर बन्धु गत दो तीन वर्षो से इनमे से कुछ विश्व विद्यालयो मे जैन रिसर्च फेलोशिप स्थापित करने की ओर प्रयत्न शील हैं, किन्तु इस कार्य मे उन्हे दिगम्बर समाज का प्राय कोई सहयोग प्राप्त नही है । ज्ञानोदय मासिक मे एकाध बार इस योजना का समर्थन तो किया गया, किन्तु सेठ शान्ति प्रमाद जी द्वारा माहित्यिक कार्यों के लिए स्थापित ट्रस्ट के प्रबधको ने भी कोई सक्रिय उपक्रम इस दशा में अभी तक नही किया, याप यह उनके लिए महज था । कोई ऐसा उत्कृष्ट जैन कालिज भी विद्यमान नही है जिसमे जैनालॉजी का एक पृथक विभाग हो और जैनाध्ययन की समुचित साधन सुविधाए हो। जैन कालिजो और स्कूलो की सख्या भी कुछ कम नही है, किन्तु वे नाम मात्र के लिए ही जैन हैं, अर्थात् वे केवल इसी कारगण जैन नामाकित है क्योकि वे जैनो द्वारा उन्ही के धन मे स्थापित और उन्ही के उद्योग से सचालित है। किन्तु उनके पाठ्यक्रम में जैन साहित्य और सस्कृति का किसी प्रकार का कोई स्थान नही है । इसके अध्ययन अध्यापन के लिए उनमे कोई साधम सुविधाए नही है । उनके पुस्तकालयो मे बिना मूल्य, भेट,