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बहुमूल्य समय देकर अनेक कष्ट लाञ्छना अपमानादि सहन कर अपनी जेब से ही आवश्यक द्रव्य भी व्यय करके पूरी लगन और तत्परता के साथ समाजोन्नति के विविध कार्यक्रमो मे जुटे रहते थे । सस्थाए भी थोड़ी बी पर बे ऐसे कर्मठ, निस्वार्थ एव कर्त्तव्य शील नेताओ की म्रध्यक्षता मे बहुत कुछ ठोस कार्य कर रही थी । किन्तु अब आये दिन नई-नई सस्थाओ का जन्म होने लगा, उन्हे व्यक्तिगत स्वार्थी की पूर्ति का साधन बनाया जाने लगा, छोटी-छोटी व्यापारिक कम्पनियो जैसी उनकी स्थिति हो गई। उनके नेताओ और कार्यकर्ताओ म या तो पद और मान के लोलुपी प्रदीमुल फुर्सत बड़े-बड़े श्रीमान होने लगे या फिर वैतनिक अथवा नाम मात्र के लिए अवैतनिक ऐसे व्यक्ति होने लगे जो प्रायः करके न स्वल्प सतोषी ही होते हैं और न जीवन निर्वाह सम्बधी द्रव्योपार्जन की चिन्ता से मुक्त ही । लोभ एवं अधिकार मोह के कारण बरसाती मेढकों की भाँति नित्य प्रति बढती जाने वाली इन सस्थाओ मे परस्पर सहयोग, सद्भाव और एक सूत्रीकरण नही हो पाता । फलस्वरूप समाज की शक्ति मौर द्रव्य का तो पर्याप्त व्यय होता है किन्तु किसी दशा मे भी वाञ्छनीय इष्ट सिद्धि नही हो पा रही है। इन संस्थानो के अधिवेशन अवश्य ही वडी धूम धाम और शान के साथ होते हैं, उनके प्रचारक भी स्थान-स्थान मे घूमते हैं, कई एक संस्था के अपने मुखपत्र भी हैं, पुस्तकादि के रूप मे भी साहित्य प्रकाशित होता है, किन्तु उपरोक्त दोषो के कारण तथा निस्वार्थ कर्त्त व्यशीलता के अभाव मे न इन संख्याओ का और न इनसे संबधित व्यक्तियों का समाज पर कोई प्रभाव पडता है । वार्षिक कार्य विवरण प्राकर्षक रिपोर्टों के रूप मे प्रकाशित होते है किन्तु ठोसकार्य कुछ भी होता नही दीखता । समस्याए बढ़ती चली जाती हैं पर किसी समाज की समस्या का भी सन्तोषजनक समाधान नहीं होता । समाज सुधार शिक्षा, राजनैतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक किसी भी क्षेत्र में जो जो आवश्यकताए ं हैं वे इन्ही की पूर्ती के लिए स्थापित इतनी सारी संस्थानों सैकड़ो नेता, सैकड़ो ही विद्वानो और सौ के ही लगभग सामयिक पत्रोंके होते हुए भी प्राय कुछ भी पूरी नही हो पा रही हैं। गत बीस वर्षों मे कई एक उच्च