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* अपभ्रस साहित्य का गंभीर अध्ययन एक अन्य हष्टि से भी प्रावश्यक है। महराजगती व राजस्थानी भाषामो के विकास के इतिहास के लिए निश्वस्त मत्युपयोगी है। यही नहीं, बल्कि विद्वानों ने तो यह बात भी प्रायः निर्विवाद स्वीकार करनी है कि कतिपय गौण स्थानीय भेदों को लिए हुए अपना भाषा ही जोकि प्रायः सम्पूर्ण उत्तरी एव मध्य भारत मे बालता के साथ प्रचलित . थी, माधुनिक भारतीय मार्य लोक भाषामों का मूलाधार, उद्रम स्रोत एवं प्रत रूप है । अतएव इसमें सन्देह नही कि उसका अध्ययन उक्त प्रान्तीय भाषामो के शब्द कोष तथा व्याकरण सम्बंधी नियमों को समृद्ध करने में प्रत्युपयोगी सिद्ध होगा और मन्तर प्रान्तीय व्यवहार सबद्धन के हित हमारी राष्ट्रीय भाषा के शब्द मडार के समुचित निर्माण की वर्तमान समस्या को बुलझाने में भी सहायक होगा। जैनो के मूल पार्ष अन्थो तथा उनकी टीकामो में प्रयुक्त प्रयोगों के सम्बन्ध से यदि प्राकृत भाषाओं का बिपि विज्ञान, वर्स विज्ञान एव व्याकरण विषयक व्यवस्थित अध्ययन चालू किया जाय तो वह निश्चय ही मध्य कालीन भारतीय भार्य साहित्यिक ज्ञान के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
वास्तव मे, स्क्य आचार्य हेमचद्र ने अपभ्र श भाषा की व्यवहार्य रूपरेखा प्रदान करदी थी और अब जैकोबी, हीरालाल, वैद्य, उपाध्याय, एल्सफोर्ड प्रभृति विद्वानों ने उसके प्रादर्श सम्पादित सस्करण भी प्रस्तुत कर दिये है। सामान्यत. काम चलान से लिए 'पाइयसद्दमहाण्णव' उसका एक अच्छा कोष भी है। अपनश साहित्म की यह भी विशेषता है कि उसमें भाषा के लिए उपयुक्त छन्दो का ही प्रयोग हुआ है । प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के छन्दोंनुशासन के सम्बंध में प्रो० एच० डी० वेलकर द्वारा प्रस्तुत मूल्यवान सामग्री और विवेचन उक्त साहित्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। पूर्वी अपभ्रंश के सम्बन्ध में श्री हरप्रसाद शास्त्री, सहीदुल्ला, वायची, चौधरी मादि विद्वानो ने अच्छे ज्ञातव्य प्रदान किये हैं। प्रस्तु प्राकृत भाषामो की अषम मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषामो की, जिनमे कि भगवान महावीर ने अपने