Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (५) श्मश्रुकल्पनः । यहां श्मश्रु और कल्पन शब्दों का पूर्ववत् षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से श्मश्रु कारक से परे कृदन्त कल्पन उत्तरपद को प्रकृतिस्वर होता है। कल्पन शब्द में कृपू सामर्थे (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् ल्युट् प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(६) ईषत्करः। यहां ईषत् और कर शब्दों का उपपदमतिङ् (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से ईषत् उपपद से परे कृदन्त कर उत्तरपद को प्रकृतिस्वर होता है। कर' शब्द में ईषदुःसुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल (३।३।१२६) से खल् प्रत्यय है। प्रत्यय के लित् होने से 'लिति' (६।१।१८७) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् उदात्त है। ऐसे ही-दुष्करः, सुकरः। प्रकृतिस्वर:
(४) उभे वनस्पत्यादिषु युगपत् ।१४०। प०वि०-उभे १।२ वनस्पति-आदिषु ७।३ युगपत् अव्ययपदम् ।
स०-वनस्पतिरादिर्येषां ते वनस्पत्यादयः, तेषु-वनस्पत्यादिषु (बहुव्रीहिः)।
अनु०-प्रकृत्या इति चानुवर्तते। अन्वयः-वनस्पत्यादिषु उभे युगपत् प्रकृत्या।
अर्थ:-वनस्पत्यादिषु समासेषु उभे पूर्वपद-उत्तरपदे युगपत् प्रकृतिस्वरे भवत:।
उदा०-वनस्य पतिरिति वनस्पति: । बृहतां पतिरिति बृहस्पति:, इत्यादिकम्।
वनस्पति: । बृहस्पति: । शचीपति: । तनूनपात् । नराशंस: । शुन:शेपः । शण्डामौ । तृष्णावरुची। बम्बाविश्ववयसौ । मर्मृत्यु: । इति वनस्पत्यादयः ।।
आर्यभाषा: अर्थ-(वनस्पत्यादिषु) वनस्पति आदि शब्दों के समास में (उभे) दोनों पूर्वपद और उत्तरपद (युगपत्) एक साथ (प्रकृत्या) प्रकृतिस्वर से रहते हैं।
उदा०-वनस्पतिः । बड़ा जंगली वृक्ष जिस पर फूलों के बिना ही फल लगते हैं। बृहस्पतिः । देवताओं का गुरु, इत्यादि। - सिद्धि-(१) वनस्पतिः । यहां वन और पति शब्दों का 'षष्ठी' (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। इस सूत्र से तत्पुरुष समास में पूर्वपद वन और उत्तरपद पति शब्द युगपत् प्रकृतिस्वर से रहते हैं। वन शब्द नविषयस्यानिसन्तस्य' (फिट० २१३) से आधुदात्त है और पति शब्द में पातेर्डति (उणा० ४।५८) से डति-प्रत्यय है. अत: यह भी