Book Title: Kushalchandrasuripatta Prashasti
Author(s): Manichandraji Maharaj, Kashtjivashreeji Maharaj, Balchandrasuri
Publisher: Gopalchandra Jain

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Page 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 किंचित् वक्तव्य के आज हमको श्राप सज्जनों के करकमलों में यह पवित्र ग्रन्थ रखते हुए हर्ष होता है। इसे पढ़कर विक्रम अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दियों में जैनधर्म की दृष्टि से ऐतिहासिक परिस्थिति क्या थी, इसका बोध होगा, जिससे जैनों में नव चेतनात्मक स्फूति उत्पन्न होगी, व उनको ज्ञात होगा कि, हमारे पूज्य धर्माचार्यों ने इन प्रदेशों में नष्टप्राय जैन-ज्योति को पुनः प्रदीप्त करने में कितना परिश्रम उठाया है। . उन्हींकी श्रादर्श तपस्या के सुपरिणाम में आज भी हमारे इन अंग, बंग, कलिंग, मगध, बिहार, काशी, कोशल श्रादि प्रदेशों में "जैन संस्कृति" कायम रह सकी है, जो कि "अहिंसा संयम तप प्रधान" है । यद्यपि जैन-इतिहास से यह स्वयंसिद्ध है कि ये सर्व प्रदेश एक समय "जैन संस्कृति" के महान् केन्द्रस्थल हो रहे थे, किन्तु "समय एव करोति बलाबलं" इस प्रकृति नियमानुसार उत्थान पतन होना स्वाभाविक है । तथापि आज भी इन प्रदेशों में महत्व के जैनों के अनेक पवित्र धर्मतीर्थ क्षेत्र हैं। विशाल जैन श्रीसंघ है, अनेक विद्वान् हैं । श्राज भी इन प्रदेशों का जैन श्रीसंघ ७ व्यसनो से मुक है, यह जैन संस्कृति की सफलता के सुस्पष्ट लक्षण हैं । जैन संस्कृति और जैन श्रीसंघ के लिये यह कितने सौभाग्य का विषय है कि उन पूज्य धर्माचार्यों ने-जिन्होंने भीषण परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्यों के पालन द्वारा धर्म-सेवा करके असीम श्रेय प्राप्त किया था। प्रस्तुत पुस्तक में विक्रम अठारहवों शताब्दी में, काशी कोशल श्रादि प्रदेशों में से नष्टप्राय जैनसंस्कृति को, ऐतिहासिक पवित्र जिनेन्द्र भगवान को कल्याणक भूमियों के नामशेष तीर्थ-क्षेत्रों का पुनरुद्धारकर जैन धर्म संस्कार विहीन जैन श्रीसंघों को, पुनः धार्मिक नवजीवन देनेवाले, उस कालके महान् धर्मज्योतिर्धर परम पूज्य सद्गुरुदेव पूज्यवर प्राचार्य श्रीकुशलचंद्र सूरीश्वरजी महाराज की धार्मिक जीवन ज्योति से किस तरह से पुनः इन प्रदेशों For Private And Personal Use Only

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