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(४१) योग्य कथन नहीं है। इस पर से यह पाया जाता है कि इस तीर्थ पर ध्वजादण्डारोहण की क्रिया प्राचीन काल से श्वेताम्बर समाज की ओर से ही होती आइ है, और तदनुसार सेठ सुलतानचंदजी का भी यह सम्बत् १८८६ का स्तुत्य प्रयास है और महाराणा साहिब की उदारता तो धर्मकार्यों में जगप्रसिद्ध है ही। आपने सेठजी को सानुकुल समय-सामप्रीसेवा पण्डो की तरफ से सम्पादन हो और किसी तरह की असुविधा न हो इस हेतु से पत्र लिख दीया जो सेठ सुलतानचन्दजी को सहायक हुवा ।
महाराणासाहब पत्रद्वारा आभूषण चढाने की प्राचीन प्रथा को जाहिर कर भण्डारी पंडो की ओर से वेपरवाही का जिकर कर आभूषण अखंड रखने की सूचना देते हैं। और
आभूषण की रक्षा में या ध्वजादंड चढाने के कार्य में किसी तरह की खामी रह जायगी तो फिर उपालम्भ देने की धमकी बतलाई गई है । और ठीक भी है मेदपाटेश्वर-मेवाडनाथ का लक्ष हमेशा धर्म की तीर्थ की रक्षा पर रहता आया है। इस के बाद सम्वत् १८८४ वैशाख सुदि पञ्चमी को ध्वजादण्ड चढाया गया इस ध्वजादण्ड के चढाने से पहले दिगम्बर भाईयों की
ओर से एक द्रख्वास्त श्रीमान् महाराणाधिराज श्री फतेहसिंहजी की सेवा में पेश हुई थी जिस में यह आशय लिखा था कि
सम्वत् १९८५ में ध्वजादण्ड चढाया गया था और उस समय दिगम्बर सम्प्रदाय के भट्टारकद्वारा प्रतिष्ठा कराई गई