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चतुर्विधदाननिरूपण
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यच्चार्कस्य यथा करोति सुदृशां दृष्टिप्रकाशं सुखं । बाधां क्रूरभवां निवार्य शुभकृत्कर्माण्यलंकारयेत् ॥१७॥ अर्थ---जिस प्रकार सूर्य के उदय होनेपर जिनकी आंखे अछी हो उनको प्रकाश मिलता है । सुखका अनुभव होता है, क्रूर सर्प इत्यादि प्राणियोंकी बाधासे बच. जाते हैं, अच्छे कार्य में संलग्न होते हैं। चोरी इत्यादि पापकर्मीको करने का अवसर नहीं मिलता है इसी प्रकार जिस देशका राजा न्यायवान् एवं पराक्रमी हो, अथवा जिस राज्य में तपस्तेजसे युक्त कोई मुनि हो, उन दोनोंके तेजसे प्रजावोंका दुःख दूर होता है । उनको कोई बाधा नहीं सताती है, उनका पाप दूर होकर पुण्यकी वृद्धि होती है एवं उस राज्यकी प्रजा शुभकार्य में प्रवृत्त होकर सुख प्राप्त करती है ॥ १७ ॥ . सद्धर्मापहताववग्रहगतःस्यात्तत्तटाको वृषः।
शून्यस्तत्तदधः प्रजा निजकरं सस्य न दत्ते फलं ॥.. धर्मान्वर्द्धय पाहि धार्मिकजनान् शुद्धान्विशुद्धाशयान् ॥
स्वस्थानायवर्तिनोऽप्यनुदिनं क्षेत्रं यथा कार्षिकाः ॥१८॥ अर्थ-हे राजन् ! सद्धर्मका नाश होनेपर प्रजाजनो में सुख शांति नहीं रहती है। जिस प्रकार सस्योत्पत्तिके आधारभूत तालाबका पानी सूखनेपर सस्य होता नहीं, फिर प्रजा अपने करको नहीं देती है, इसलिये राज्य में सुख शांति में मूल कारण धर्मका यदि नाश होता है तो दुर्भिक्ष आने में देरी नहीं लगती । इसलिये अपने राज्य में धर्म की वृद्धि करो, जो धर्मात्मा है, सज्जन हैं, ऐसे महल, नगर, राज्य के मनुष्योंकी रक्षा करो, जिस प्रकार किसान खेतकी रक्षा चिंतापूर्वक करता है उसी प्रकार अपनी प्रजाजनोंकी रक्षामें दत्तचित्त रहो॥१८॥
तातं स्वामिनमुत्तमार्यमनुजं जामातरं मातरं । मातारं गुरुमित्रसेवकमरि ज्येष्ठं गुणं वल्लभां ॥
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. चन