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दातलक्षणविधिः
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अर्थ-जो धर्मात्मा पुण्यवान् दाता पात्रोंके श्रमको पानद्रव्यादिकोंको देकर दूर करता हो, वह जन्मभर श्रमरहित होता है । जो पात्रको स्वास्थ्य पहुंचाता है वह स्वयं भी जन्मभर स्वास्थ्ययुक्त हो जाता है । पात्रोंके असाता से उत्पन्न रोगोंको दूर करनेवाला स्वयं निरोगी शरीर को प्राप्त करता है । पात्रोंकी चिंताको दूर करनेवाला स्वयं चिंतारहित, आहारादिकको देकर क्षुधा दूर करनेवाला स्वयं सुखादिकसे तृत, पात्रोंके दोषको दूर करनेवाला स्वयं निर्दोषी, उनके क्रोधादिकको शांत करने वाला स्वयं सर्व प्रकारसे शांत, उनके संक्लेशपरिणामको दूर करनेवाला स्वयं सर्वप्रकार से संतुष्ट, एवं उनके अज्ञानको दूर करनेके लिए योग्य साधनको उपस्थित करनेवाला ज्ञानी व निर्मल होता है ॥ ११७ ॥
उत्तम क्षमा.. काषायोपशमोद्भवेव गुलिका शुद्धा क्षमा यात्र सा । साशंका भयमृत्युकृत्पथि गृहे क्षेमंकरी शंकरी ॥ संसारांबुधिसेतुरैनसगिरित्रातस्वरुस्सक्षमं ।
संस्थाप्य स्तुवति प्रशंसति जनश्चेतस्यजस्रं मुदा ॥१८॥ अर्थ--जिनके हृदयमें पच्चीस कषायोंके उपशमसे उत्पन्न शुद्ध क्षमा हो वह निर्मल व उज्ज्वल मोतीके हारके समान सबके मनको आकर्षित करती है। कीमती मोतीके हारको पहनकर रहनेसे घरमें या बाहर चोर वगैरहके द्वारा मृत्युका भय रहता है। रात-दिन उसकी शंका रहती है । परंतु यह क्षमा सर्वथा क्षेम व सुखको करनेवाली है,
। स्वधर्मपीडामविचिंग्य योऽयं मत्पापशुद्धयर्थमिह प्रवृत्तः
नो चेक्षमामण्यहमत्र कुयों मर्त्यः कृतघ्नो वद कीडशोऽन्यः।। स्तंभयतीम क्रोधं विकचयति च साधुहदयकमलानि । पल्लवयति पुण्यानि क्षमया किं किन्न साध्यते लोके ।।