________________
२६६
दानशासनम्
.. दाताके प्रति क्रोध नहीं करनेका उपदेश
पापादेहीति कष्टं यदि फलति वचो मुद्भवेनिष्फलं त-। हुःखं मा माच कोपं कुरु दुरितफलं जातमेतत्क्षमस्व । अक्षत्वा दातृलोकं शपति शपति किं प्राक्कृतैनोवनौघ- । प्राबल्यायैव वृष्टिः क्षरति बहुतरा विद्धि भो भावय त्वं॥२३५।
अर्थ- "देहि" इस प्रकारका वचन पापकर्मके उदयसे ही बोलना पडता है, महान् कष्ट है, यदि वह वचन सफल हुआ तो हर्ष होता है, निष्फल हुआ तो दुःख होता है। परंतु हे भव्य ! निष्फल होनेपर भी दुःख मत कर, क्रोध मत कर, यह पापकर्मके उदयसे हुआ, इस लिए क्षमा कर । यदि क्षमा न कर दातावोंको गाली दें तो क्या होता है । पूर्वजन्ममें किए हुए पापके फलसे ही ये सब कुछ होते हैं । इस लिए विचार करो । व्यर्थ ही किसीके प्रति क्रोधित मत होवो ॥२३५॥
सफलजीवन भूरि जीर्णमिदं सर्व येन साधू कृतं तदा । तस्यैव स्यात्फलं सर्वमिति चिंतां प्रचिंतयेत् ॥ २३६ ॥ अर्थ- यह सब कुछ जीर्ण हो चुके हैं, अतः साधुवोंके योग्य नहीं है, ऐसा विचार सदा करना चाहिए उसीका जीवन सफल है ॥२३६॥
सार्थो जीर्णमिदं कृत्स्नं मुदा साधूकरोम्यहम् ।
स्मृत्वा न कुर्यादुक्त्वा च चिंतामिति न चिंतयेत्॥२३७॥ अर्थ-यह पदार्थ अत्यधिक जीर्ण हो चुका है, इस लिए साधुवों को संतोषसे दे डालता हूं इस प्रकार के विचार मनमें व वचन में कभी नहीं लाना चाहिए ॥ २३७॥
प्रसादलक्षण देवाय पात्राय निजोचितानि याति वस्तूनि वसंति गेहे । सावत्सु चैकैकलवं प्रदद्याच्छेषं प्रसादं प्रवदंति जैनाः ॥ २३८ ।
न