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दानशासनम्
भूतो वायमुदंभरिः सदनपक्काहारमेकोऽप्यदन् । दीनोऽयं तमुदासयत्यपि स ना दाता न लुब्धो भवेत् ॥१५॥
अर्थ- बहुत भोजन करनेवाले पात्रको देखकर जो दाता अपने मनमें आश्चर्यचकित होकर यह विचार करता है कि मैं इसको भोजन कराने के लिये समर्थ नहीं हूं। इसे सेकडों ही सेर अन्नकी जरूरत है । उसे मैं कहांसे लाऊं ? क्या यह भूत तो नहीं है ? अथवा पेटार्थी ( भोजन भट्ट ) है। मेरे घर पकाए हुए सर्व आहारको खिलाने पर भी इसका उदर भर नहीं सकता है । ऐसा समझकर जो दाता पात्रोंकी उपेक्षा करते हैं वे दाता नहीं है अपितु महाकंजूस है ॥५॥
अलुब्ध दाता. यावद्रोहलसंपदस्ति विमलं क्षेत्रं फलत्यद्भुतं । भूरिग्रासवतीव गौः क्षरति सुक्षीरं घटापूरितं ॥ वर्ष तृप्तिकरं रसेष्टवसुधो यात्रसौहित्यकृत् । तदानं सफलं स एव सफलो दाताप्यलुब्धो महान् ॥ १६॥
अर्थ-खेतमें यथेष्ट गोबर डालनेपर उसमें यथेष्ट धान्य वगैरह उत्पन्न हो सकते हैं, गायको घास वगैरे खूब खानेको देनेपर वह यथेष्ट दूध दे सकती है, वर्षा यथेष्ट पडनेपर भूमिको रसवती बना देता है । इसी प्रकार जो दाता पात्रों के लिए अनुकूल सर्व योग्य साहित्योंसे युक्त होकर दान देता है वह दान सफल है। इसीका नाम दाताका अलुब्धत्व गुण है ॥ १६॥
पात्रसेवाफल. यः श्रांति शमयत्यसौ सुकृतवान्पात्रस्य मुक्तश्रमः । स्वस्थो स्वास्थ्यमिहामयानगतरुजश्चिंतामचिंतक्षुधा ? ॥ तृप्ती दोषमदोषवान्ऋधमिमांतांतः प्रहृष्टोऽनिशं । संक्लेशं जडतां मतः शुभमतिर्ज्ञानी भवेनिर्मलः ॥ १७ ॥