Book Title: Dan Shasanam
Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govindji Ravji Doshi

View full book text
Previous | Next

Page 316
________________ औषधदानविचार 1 व्रती भी नहीं है, शास्त्रज्ञ भी नहीं है, सम्यग्दृष्टि भी नहीं है । संघका आदर विनय करना सम्यग्दृष्टि भव्योंका कर्तव्य है ॥ ६ ॥ साधुओंको औषधि देनेकी विधि यावज्जीर्यति भेषजं रसभवं पीतं तु भुक्त्वाशनं । तावत्तिष्ठत्ति सामयो हरति तद्रोगं विधत्ते बलम् ॥ भुंक्तं भेषजमन्नमेकसमयेऽजीर्णेपि तस्मिन्यते । स्तद्रोगाधिकतां च कानपि गदान्कुर्यात्सदा संहिताम् ||७|| २७७ 1 अर्थ - आयुर्वेदशास्त्रका सामान्य नियम ऐसा है कि जो औषध ग्रहण किया जाता है, उस औषधिका पचन होनेके बाद ही आहारको प्रहण करना चाहिये । तभी उस औषधिसे अनेक रोग दूर होते हैं एवं शरीरको बलप्रदान करता है । यदि औषधिके जीर्ण होनेके पहिले ही आहार ग्रहण किया तो अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । जैनमुनि एकवार ही भोजन करते हैं। भोजन के समय ही औषध भी उनको लेना पडता है, औषध और आहार एक साथ लेने के कारणसे औषध के जीर्ण न होनेसे रोगकी वृद्धी होने की संभावना है व इतर अनेक रोगोंके उत्पन्न होने की संभावना है । इसलिए जैन साधुवों को आहार के समय औषध देना हो तो संहिताप्रयोग _ करना चाहिये ॥ ७ ॥ ‡ प्राभक्तादि औषधिसेवनफल. प्रातरिहौषधं वळवतामखिलामयनाशकारणं । प्रागपि भक्ततो भवति शीघ्रविपाककरं सुखावहम् ॥ ऊर्ध्वमथाशनादुपरि रोगगणानपि मध्यगं । स मध्याशय गान्विनाशयति दत्तमिदं भिषजा विजानता ॥८॥ + भुंक्ते मुनिस्त्वशनभेषजमेककाले तस्मात्तदौषधफलं न हि किंचिदस्ति । जीर्णौषधं हरति तत्कुरुते बलं चाजीर्ण रुजाधिकमतो न रसः प्रशस्तः ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380