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दानशासनम्:
अर्थ-हे शिष्य ! गुरुके आगे मत बैठो, और गुरुके पीछे बैठो, गुरुके सामने ग्रंथोंको गाते हुए हसते हुए मत पढो । कामविकारको उत्पन्न करनेवाले, पापकर, मिथ्या उपदेशकारक, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले, आत्मकल्याणमें बाधक ग्रंथोंका उपदेश नहीं देना। सर्व प्राणियोंको हितकारक, परिमित, सभाजनोंको उल्लसनीय व आदरणीय वचनोंको बोलो । यही विनीत शिष्यका धर्म है ॥ १५ ॥
जीतिस्वामिसमार्यपावनवचो ब्रूहि त्वमाह्वानके । मा सतिष्ठ गुरोरोरुपरि भौस्तुल्यासनेऽग्रासने ॥ मा मा मातमुख त्वमेव सततं नीचो यथा वर्तते । पत्यौ मास्य पुरः स्वपः शुचिकटे पादद्वयाधःस्थले ॥१६॥ अर्थ- हे शिष्य ! गुरुजी के आह्वान करनेपर जी, स्वामी, आर्य आदि पवित्र वचनोंका उच्चारण करो । गुरूके ऊपर समान आसनपर या अग्रासनपर मत बैठो, जंभाई वगैरेह मत निकालो । नीच सेवक जिस प्रकार स्वामी के सामने सोता है, उस प्रकार गुरुके सामने सोबो मत, सोना हो तो शुद्ध चटाईपर उनके पैरके नीचे सोयो । यह शिष्य का धर्म है ।। १६ ॥
स्त्रीसंभाषणमात्मदूषणकरं बालाननोद्वीक्षणं । तासामेव कटाक्षीक्षणमिदं चित्तस्य वैकल्यकृत् ॥ शय्यांगांवरसंस्पृशादनुपमब्रह्मवतोच्छेदनं ।
ज्ञात्वा दोषमिमं स्वसाधुनिकटे संस्थीयतां निश्चलं ॥१७॥ अर्थ---हे शिष्य ! जवान स्त्रियोंके साथ मीठी २ बात करना यह आत्माको दूषित करने के लिये कारण होगा। उन जवान त्रियोंके मुखको उत्सुकतासे देखना, और उनका कटाक्षवीक्षण यह चित्तमें चंचलता उत्पन्न करेगा। उनके शयन, [ बिरतर ) शरीर व वस्त्र के स्पर्शन होनेसे उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य व्रतका भंग होगा । इन सब होषोंको