Book Title: Dan Shasanam
Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govindji Ravji Doshi

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Page 367
________________ दानशालनम् करता है, उसके फलसे देशमें, घर पर क्षोभ उत्पन्न होता है, कदाचित् मरण भी होता है ।। ८१ ॥ बद्धगाोऽन्यरंध्रेण पुंलक्ष्म स्थान च कचित् ॥ महादोषान्वितो जीवः पुण्यलक्ष्म विमुंचति ॥ ८२ ॥ अर्थः-जो जीव-मनुष्य हमेशा दुसरेके दोष देखने में तत्पर रहता है, उसको पुरुषका चिह्न प्राप्त नहीं होगा अर्थात् वह प्रति जन्म में स्त्री तथा नपुंसक अवस्थाको प्राप्त होगा। स्वयं बहुत दोषी होने से पवित्र चिह्न उस को छोड देते हैं॥ ८२ ॥ देवस्थानपुरेशत्वं वंशपुण्यादिपर्दनम् । पापापकीर्तिप्रभृति दुगुणत्रजवर्धनम् ॥ ८३ ॥ अर्थ-देवस्थानद्रोह, राजद्रोह, वंशकी पुण्यहानि, पाप, अपकीर्ति, आदि दुर्गुणों की वृद्धि को मनुष्य कभी न करे ॥ ८३ ॥ देवस्थानग्रामवाधिपत्यं नो सत्पुण्यस्यास्ति तन्मुक्तिरन्यैः । नो चेत्सास्या द्वित्रिवर्षातरेषु स्वस्यापि स्थानत्रयस्यापि नाशः॥८४। ___ अर्थ--पुण्यहीन प्राणीको देवस्थानाधिपत्य, प्रामाधिपत्य आदि प्राप्त नहीं हो सकते हैं। हो तो भी दूसरे उसे छुडायेंगे, यदि नहीं छुडावें तो दो तीन वर्षोंमें अपना व अपने स्थानत्रयका नाश होता है। सदृष्टिसत्कारमहं करोमीत्युक्त्वा पुनस्तं न करोत्युदास्ते । यः सोऽप्यवृद्धबहुमूलहानेः क्लिश्नाति चात्मीयधनानि दत्वा ॥ ___ अर्थ- सम्यग्दृष्टी जीवोंका सत्कार मैं करूंगा, इस प्रकार वचन देकर जो उपेक्षा करता है, उसके धनका नाश होता है, वृद्धि नहीं होती है, धन को देकर भी वह दुःख उठाता है ॥ ८५॥ . क्षेत्राणि सप्त कृतिनो भुवि न स्पृशन्ति । तेषां च सूतकिजना न विशति गेहम् ॥

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