Book Title: Dan Shasanam
Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govindji Ravji Doshi

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ भविलक्षणविधानमें - भावलक्षणविधानम् राजाकेसमान पुण्यपरिकरोंको मिलाना चाहिये । यत्कर्मार्जितमुच्चयेन समुदा सत्सावधानं सदा । तं भावं च तमुद्यमं तदुचितं देशं सहायं च तम् ॥ तन्मित्रं च तमीश्वरं च तमृर्षि तान्सेवकांस्तत्कुलं । तं ग्रंथं च नियोज्य तच्च कुरुतेऽरिष्टं च भूपालवत् ॥१॥ अर्थ-जो मनुष्य यहांपर पुण्यक्रियावोंको करता है उसको बहुत थानंद व सावधान होकर उन क्रियावोंको करनी चाहिए । उन क्रियावोंके योग्य भाव, उद्योग, उचितदेश, योग्य सहायता, अनुकूल मित्र, हितैषी स्वामी, निस्पृहगुरु, अनुकूलसेवक और तदनुकूल परिग्रह आदि को योग्यरूप से मिलाकर पुण्यकार्योको करना चाहिए। तभी उसमें सफलता मिलती है जैसा कि योग्य राजा राज्यकार्यमें सर्वपरिकरोंको मिलाया करता है ॥१॥ दुष्टोंके हृद्रयमें जिनमुनि आदिके प्रति दयाभाव नहीं रहता । जैनः पूतगुणाकरो विगुणिनी दुष्टाः कुतषिणोsप्यानंतादिकषायिणः सशपना बंधुद्वयाघातिनः ॥ . दाक्षिण्यं दयया गुणेन च विना ये यत्र यत्रासते । सस्नेहं सहवासवर्तनसहाळापान्सदा तैस्त्यजेत् ॥ २ ॥ अर्थ-लोकमें ऐसे कितने ही लोग हैं जिनके हृदय में जिनमुनि व विद्वानोंके प्रति कोई दाक्षिण्य नहीं है अर्थात् उन की कोई परवाह ही उनको नहीं रहती है । इसी प्रकार उनके हृदय में कोई भी प्राणियोंके प्रति दयाभाव नहीं रहता है । इसलिए उनके हृदयमें विनयादिक गुण नहीं हुआ करते हैं। वे दूसरोंको सदा दोष लगाते रहते हैं, सज्जनोंके साथ कुतर्क करते हैं । अनंतानुबंधि

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380