Book Title: Dan Shasanam
Author(s): Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Govindji Ravji Doshi

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Page 349
________________ दानशासनम् श्वानो जानन्ति दुर्गधं ज्ञानेन क्ष्मागतं शवम् । . न निधानं तथा नीचा दोषान् पश्यन्ति नो गुणान् ॥१६॥ __ अर्थ-कुत्ता अपने ज्ञानबल से भूमिके अंदर रक्खे हुए शव के दुर्गंध को जान सकता है। परंतु भूमि में कोई निधि हो तो उसे नहीं जान सकता है। इसी प्रकार नीचमनुष्य दोषको ही ग्रहण कर सकते हैं । गुण को ग्रहण नहीं कर सकते ॥ १६ ॥ अवन्त्यदन्ति हिंसन्ति विक्रीणन्त्यामिषाशिनाम् । जावाला इव वस्तादीन् वर्तन्ते कतिचिजनाः ॥ १७ ॥ अर्थ-भेडिये लोग बकरे आदि को संरक्षण करते हैं, खाते हैं; मारते हैं एवं मांसभक्षकों को बेचते भी हैं । इस प्रकार के परिणाम के भी कोई दुष्ट रहते हैं ॥ १७ ॥ स्वकीयधर्मानुगुणास्त एव पुण्येऽधिकेऽतिप्रतिकूलवृत्ताः। . किंचिन जानन्ति हिताहितं वं मत्तास्तुमीना इव केचिदत्र ॥१८॥ . अर्थ-कोई कोई पुरुष पूर्वजन्मके धर्माचरणसे अधिक पुण्यशाली हो जाते हैं। परंतु वे प्रतिकूल आचरण करते हैं। जलमें सुखसे विहरने वाले मत्स्य जैसे मत्त होकर अपना हिताहित नहीं जानते हुए मरणवश होते हैं उसी तरह वे पुरुष भी अपना हिताहित नहीं जानते हैं। __ अन्योऽन्यलंघनविघृष्टिविरोधवृत्ता नित्यव्यथाः सततलून पुनर्भवाच । विण्मूत्रकम्बकसशर्करकीलपङ्क चर्मानुरक्तचरणा इव कंचिदत्र ॥ १९॥ अर्थ-जैसे कोई पुरुष आपसमें पावोंसे लड़ते हैं तब उनके पाव व्यथित होते हैं । उनके नखोंमें दर्द होने लगता है। तथा जिनके पावोंमें विष्टा, मूत्र, कांटे, कीचड वगैरहसे तकलीफ हो रही है ऐसे मनुष्योंके समान जो जीव आपसमें विरोध करते हैं उनको इहलोक में

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