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युगवीर प्राचार्य श्रीविजयवल्लभ : जीवनज्योति जाते थे और प्रश्न किए जाने पर कहते थे कि प्रतिमा तो तीर्थकर की ही है। उनके श्रद्धालु भक्तों में इसी कारण सहस्रों अजैन भी हैं। अन्य संप्रदायों के साधु भी उनके प्रति विनयभक्ति रखते थे। यही कारण है कि श्राप के स्वर्गवास पर श्री गणपति शंकर देसाई ने कहा था, "मैं छाती ठोक कर कह सकता हूं कि वे केवल जैनों के प्राचार्य नहीं थे, परन्तु सब लोगों ने उन्हें जगत्गुरु के रूप में अपनाया था। उन के कार्यों ने जैनत्व को विकसित करते हुए मानवपद को भी दैदीप्यमान किया है।"
उनके चरित्र की एक महान् विशेषता यह थी कि वे जिन-शासन पर कोई संकट या अाक्रमण सहन नहीं कर पाते थे और उसके निराकरण के लिए सर धड़ की बाज़ी लगाने से भी संकोच नहीं करते थे। गुजरांवाला में एक शास्त्रार्थ के लिए उन्होंने चालीस चालीस मील का प्रतिदिन विहार किया था और वह भी ज्येष्ठ आषाढ़ की कड़कती धूप में। देश के विभाजन के समय आपने पाकिस्तान से अकेले श्राने से इन्कार कर दिया था और कहा था कि जबतक श्रीसंघ का एक भी बच्चा यहां रह जाता है, मैं उसे निराधार छोड़ कर जाना अधर्म समझता हूं। जिन समाजोपकारी प्रवृत्तियों को श्राप समाज के लिए अमोघ बाण समझते थे, उन की सफलता के लिए अभिग्रह लेने से भी पीछे नहीं हटते थे। गुरुकुल की स्थापना और मध्यम वर्ग के उत्कर्ष के लिए पांच लाख के कोष के निमित्त श्राप के कठिन अभिग्रह सभी के स्मृतिपट पर अंकित हैं।
श्राप का व्याख्यान सुनने वाले या जिज्ञासा दृष्टि से श्राप से शंकाओं का समाधान करनेवाले यह भलीभांति जानते हैं कि आप की विद्वत्ता गम्भीर और अगाध थी। उनके उत्तरों में स्थिरप्रज्ञता, उदारता, निष्पक्षता और ज्ञान की गहनता की पूरी पूरी छाप हुश्रा करती थी। उत्तरों में एक विशेषता यह रहती थी कि वे प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा, योग्यता व परिस्थिति के अनुसार हुआ करते थे। एक बार मैंने अपने एक भाषण में कहा कि “ मूर्तिपूजा अात्मकल्याण का एक साधन मात्र है।" इस पर कुछ रूढ़िचुस्त भक्तों ने मेरे सामने ही प्राचार्यश्री जी के पास मेरे मिथ्यात्व' की शिकायत की। आचार्यश्री जी ने बड़े प्रेम, युक्ति और प्रमाण से मेरी बात का समर्थन ऐसे ढंग से किया कि दोनों पक्ष अत्यन्त संतुष्ट हुए। गुजरांवाला में एक अजैन सुशिक्षित विद्वान् ने श्राप के दर्शनों व वार्तालाप से कृतार्थ हो मुझे बताया कि सुना था और पढ़ा था कि महात्माओं की शान्त अन्तरात्मा से शांति के परमाणु निकल कर सब को प्रभावित करते हैं, किन्तु इसका प्रत्यक्ष अनुभव आज पहली बार इस महात्मा के दर्शनों के समय हुअा।।
जैनों के सभी संप्रदायों को एक संगठन में लाने के लिए आप के हृदय में सच्ची तड़प थी। श्राप ने यह भी घोषणा की थी कि “यदि सभी संप्रदाय एक होते हों तो मैं अपना प्राचार्य पद छोड़ने के लिए भी प्रस्तुत हूं।" डाक्टर Felix Valyi ने Times of India (22-6-1955) में अपने एक लेख 'Jainism at the Cross Roads' में लिखा है :-"अाधुनिक समय के सबसे महान् जैन गुरु स्वर्गीय श्री विजयवल्लभसूरि जिन का कुछ मास पूर्व बम्बई में स्वर्गवास हा, मेरी जानकारी में एक ही ऐसे जैन साधु थे जिन्हों ने सांप्रदायिकता का अंत करने का प्रयास किया। उन्होंने सभी जैनों से प्रेरणा की कि वे 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' विशेषणों को छोड़ कर 'जैन' का सरल नाम ग्रहण करें ताकि गृहस्थों में नई जागृति का श्रीगणेश हो सके।"
आप के तप, त्याग, श्रादर्श चरित्र व धर्मोपदेश की प्रभावशाली शैली से देश के राजनैतिक नेता भी प्रभावित हुए थे। अम्बाले में आप का भाषण सुनकर स्वर्गीय पं० मोतीलाल नहरू ने हमेशा के लिए तम्बाकू का उपयोग छोड़ दिया था। महामना स्व० श्री मदनमोहन मालवीय ने भी श्राप के दर्शनों से अपने को कृतकृत्य माना था। बीसियों राजे महाराजे व नवाब आप के अनन्य भक्त थे।
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