________________
आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ
-
८. कद्दावली घटना नं० ५गईभोच्छेदः घटना नं० ६ – चतुर्थीकरण; घटना नं० ७ अविनीत शिष्यपरिहार, सुवर्णभूमिगमन; घटना नं० १– कालक और दत्तराजा,
११४
-
जब पञ्चकल्पभाग्य के अनुसार नं० ३ और ४ वाले कालक एक हैं, उत्तराध्ययन] नियुक्ति के अनुसार नं० ७ और नं० २ वाले एक हैं, और जब नं० ७ वाली घटना का नं० ३ और नं० ४ के अनुयोगग्रन्थों से सम्बन्ध है तब नं० २, ४, ७, और २ – ये सब घटनाएँ एककालकपरक होती हैं। निशीथचूर्णि अनुसार नं० ५ और नं० ६ वाले श्रार्य कालक एक हैं। और बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार नं० ५ और नं०७ वाले एक हैं, अतः नं० ५, ६ और नं० ७ वाले कालक तो एक हैं ही। उत्तराध्ययननियुक्ति और चूर्णि के मत से नं० ७ और नं० २ वाले एक हैं । अतः नं० ५, ६, ७, २ वाले एक ही कालक हैं। फिर नं० ३ और ४ वाले नं० ७ वाले कालक हैं वह तो स्पष्ट है । " मुनिश्री कल्याणविजयजी को यह मंजूर है । और कहावली के अनुसार, नं० ५, नं० ६, नं० ७ और नं० १ वाले कालक एक हैं। अतः इस विभाग के ग्रन्थों के समीक्षण से इन ग्रन्थकारों के खयाल में घटना नं० १ से घटना नं० ७ वाली सब घटना वाले कालकाचार्य एक ही होंगे।
यह कालक कब हुए मुनिश्री कल्याणविजयजी के मत से दो कालकाचार्य हुए पहले निर्वाण संवत् ३०० से ३७६ तक में, इन का जन्म नि० सं० २८० में, दीक्षा नि० सं० ३०० में, युगप्रधानपद नि० सं० ३३५ में और स्वर्गवास नि० सं० ३७६ में उनके जीवन की दो घटनाएँ घटना नं० १यज्ञफलकथन, और घटना नं० २ - निगोदव्याख्यान । ५
५२
(
मुनिजी के मत से, दूसरे कालक के जीवन में घटना ३ से ७ हुई। और वे हुई : घटना ३ (निमित्त-पठन), वीर निर्वाण संवत् ४५३ से पहले; घटना ४ नि० सं० ४५३ से पहले; घटना ५ ( गद्दभिस्लोच्छेद), नि० सं० ४५३ में नि० सं० ४५१ से ४६५ के बीच में; घटना १ ( विनीत शिष्य- परिहार ), ४६५ के पहले " ३ |
५३
आप लिखते हैं-" जहाँ तक हम जान सके हैं, उपर्युक्त सात घटनात्रों के साथ दो ही व्यक्तियों का सम्बन्ध है - प्रज्ञापनाकर्ता श्यामार्य और सरस्वती - भ्राता श्रार्य कालक । निगोद-पृच्छा सम्बन्धक घटना, जो काल-कथाओं में चौथी घटना कही गई है, हमारी समझ में श्रार्य रक्षित के चरित्र का अनुकरण है । परन्तु इस विषय में निश्चित मत देना दुस्साहस होगा क्यों कि 'उत्तराध्ययन-निर्युक्ति' में एक गाथा हमें उपलब्ध होती है, जिसका श्राशय यह है-" उज्जयिनी में कालक क्षमाश्रमण थे और सुवर्णभूमि में सागर श्रमण । ( कालक सुवर्णभूमि गये, और इन्द्र ने आ कर ) शेष आयुष्य के विषय में पूछा । ( तत्र कालक ने कहा ) आप इन्द्र हैं। xxx इस वर्णन से यह तो मानना पड़ेगा कि कालक के पास इन्द्रागमन विषयक बात
५२. वही, पृ० ११६-११७. ५३. वही, पृ० ११६ - ११७.
Jain Education International
-
५१. अविनीतशिष्यपरिहार ( और सुवर्णभूमिगमन) वाली घटना और निमित्त पठन और अनुयोग निर्माणवाली घटना को छानवीन कर के मुनिधी लिखते है " इन दोनों पटनाओं का आन्तरिक रहस्य एक ही है और वह यह कि कालक के शिष्य उनके काबू में न थे।" इस खयाल को ले कर मुनिजी ने भी बताया है कि ये घटनायें एक ही कालक के जीवन की है। द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, ४० ११५.
घटनायें इस क्रमसे
अनुयोग - निर्माण ), घटना ६ (चतुर्थी पर्युषणा ), नि० सं० ४५१ के बाद और
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org