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पंजाब केसरी का पंचामृत
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की भावना हुई। वैसे तो मेरी इच्छा अंग्रेजी में The Glory and Antiquity of Jainism पर लेख लिखने की थी परन्तु हमारी संस्था के संचालक तथा नगर के मुख्य सज्जनों का आग्रह था कि गतकाल के ऐतिहासिक गौरव के गीत गाने की अपेक्षा आज हमारी उन्नति के साधक पंचामृत रूप पू० श्राचार्य भगवंत के अंतिम संदेश पर ही लिखना विशेष उपयोगी है। इसी लिये मैं सबकी प्रेरणा से उसी पर दो शब्द लिख रहा हूँ ।
सेवा
सेवा ही मानव जीवन का सार है। श्रागम, उपनिषद्, पुराण, कुरान एवं बाईबल आदि जितने भी संसार में धर्मशास्त्र हैं सब ही सेवा धर्म का ही समर्थन करते हुए नजर आते हैं । " सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः” यह जैसी पूर्व की ध्वनि है वैसी ही उसकी प्रतिध्वनि पश्चिम में व्यापक है कि There is no greater religion than service अर्थात् 'सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । "
" परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय दुहन्ति गावः ।
परोपकाराय वहन्ति नद्यः परोपकाराय सतां विभूतयः ॥
सूर्य, चंद्र, सितारे, जल, तेज, वायु एवं वनस्पति श्रादि सारे पदार्थ परोपकार अर्थात् सेवा के लिये प्रवृत्ति करते हुए नजर आ रहे हैं और आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि कर रहा है कि Every action has got reaction—प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य है - इसलिये यह निश्चय है कि दूसरों को सुख देकर ही हम सुख ले सकते हैं, दूसरे को दुःख देकर सुख की आशा रखना भयंकर भुजंग के मुख से अमृत की
शा रखने के समान है। उदाहरणार्थ अगर हम वृक्ष के मीठे फल खाने की आशा रखते हैं तो उससे पहिले हमें उसके मूल में अमृतजल का सिंचन करना ही पड़ेगा। अगर गौरस के सेवन से हम अपना स्वास्थ्य सुन्दर बनाना चाहते हैं तो गौपालन का सर्वोत्तम तरीका अपनाना ही पड़ेगा। अगर हम अपने पैरों को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो मार्ग को निष्कंटक बनाने के लिये परिश्रम उठाना ही पड़ेगा। कहावत है कि As you sow so you reap — जैसा बोवेंगे वैसा काटेंगे। हमारे पूज्य धर्माचायों ने इस विधि के ध्रुव सिद्धांत को यथार्थ रूप में ध्यान में रखकर जीवन में सेवा एवं परोपकार पर बहुत ही भार दिया है। योगशास्त्र में श्रावकों को लोकप्रिय होने के लिये श्री हेमचन्द्राचार्य ने आदेश दिया है। उसी तरह से श्री हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु में लोकवल्लभ बनने का उल्लेख किया है। लोकप्रिय एवं लोकवल्लभ बनने के लिए स्वार्थत्याग और सेवा उपासना को श्रादर देना ही पड़ेगा ।
प्राचीन काल में जैन समाज की प्रतिष्ठा इतनी बढ़ी चढ़ी थी, इसका खास कारण सेवा और परोपकार था । सारी समाज को महाजन और श्रेष्ठ (शेठ) का पद प्राप्त था, इतना ही नहीं परन्तु यवनों के शासन में भी उनकी भाषा के मुताबिक सर्वोपरि पद " शाह" का खिताब जैन समाज को प्राप्त था। इसी जैन समाज के सुपुत्र जगडुशाह, भामाशाह, पेथड़शाह, समराशाह, खेमादराणी, वस्तुपाल, तेजपाल, विमलशाह श्रादि नररत्नों की अमर कहानियां आज भी भारत के इतिहास में गाई जा रही हैं। वह भी एक समय था कि नगर की शोभा जैन समाज पर निर्भर थी और प्रत्येक नगर में प्रायः नगरशेठ के आदर्श स्थान पर जैन ही अधिष्ठित होता था और सारी जैन समाज के लोग नगर के मुखिया निर्यामक एवं सूत्रधार समझे जाते थे । हमें चाहिए कि चाहे देश या विदेश में, प्रान्त या नगर में या ग्राम में जहाँ कहीं भी हम रहते हों, चाहे उद्योग, व्यवसाय या अमलदारी के लिये स्थायी या अस्थायी रूप से निवास करते हों, वहाँ की प्रजा के हित के लिये अपने तन मन और धन का विवेकपूर्वक भोग देना चाहिए और भ्रातृभाव और वात्सल्यभाव इतना बढ़ाना चाहिए कि हम प्रजा के प्रारण बन जावें अर्थात् उनके सुखदुःख में सम्पूर्ण सहयोग और
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