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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ . सहानुभूति से प्रोत-प्रोत हृदय के कारण सर्व-साधारण के हृदयपटल पर आपकी अमिट छाप अंकित हो जाती थी। आपका कट्टर से कट्टर विरोधी भी आपके समक्ष अानेपर स्वयमेव नत-मस्तक हो जाता था और अापका परमभक्त बन जाता था। आपके संपर्क में जो भी व्यक्ति अाता था, वह आपकी भव्याकृति का दर्शन करके तथा आपकी सुधावर्षिणी वाग्धारा का पान करके पूर्णतया तृप्त हो जाता था, और अापके सामीप्य से दूर जाने पर उसके मन में आपके दर्शन-लाभ एवं उपदेश-श्रवण की उत्कट अभिलाषा वारंवार उत्पन्न होती रहती थी।
आपका रहन-सहन और खान पान अत्यंत सीधा-सादा और जैन मुनि के लिए आदर्श था। जैनाचार्यों में आपका स्थान निर्विवादरूप से अप्रतिम था। जैन समाज ही नहीं, अपितु समस्त जैनेतर समाज में भी आपकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी। आप जहाँ भी जाते, वहीं जनता का समुद्र उमड़ पड़ता था, और प्रत्येक जाति अथवा संप्रदाय के लोग आपके सदुपदेशों से लाभान्वित होते थे। इतने महान् प्रभावशाली युग-वीर प्राचार्य होते हुए भी आपको अभिमान छू तक नहीं गया था। आप अपने आपको एक साधारण जैन-मुनि अथवा जनता का सेवक ही समझते थे। आपकी सरल-हृदयता, विनय-शीलता, उदार-स्वभाव, शान्त वृत्ति एवं त्याग-भावना अत्यंत मर्म-स्पर्शी थीं। अापकी गुरु-भक्ति एवं निर्लोलुपता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि आपने अपने अनवरत परिश्रमद्वारा संस्थापित समस्त संस्थाओं का नाम-करण अपने पूज्य गुरुदेव के नाम पर अथवा अन्य नाम पर किया। बाह्याडंबर एवं यशःकांक्षा तथा पद-लिप्सा से आप कोसों दूर रहते थे। आप सरल जीवन एवं उच्च विचार (Plain living and high thinking) के मूर्तिमान उदाहरण थे। - समाज की जड़ों को खोखला बनाने वाले कलह, अविद्या, अन्ध-विश्वास, दुर्व्यसन, आलस्य, अप-व्यय, बेकारी अादि समस्त दुर्गुणों का उन्मूलन कर समाज को सुशिक्षित, सुसंगठित, सुसंस्कृत, सामयिक, जाग्रत एवं क्रियमाण बनाने में आपने जो योग-दान दिया, वह सर्व-विदित है। जैन-धर्म के समस्त मतमतांतरों में सामंजस्य-साधन एवं एकता-स्थापन के लिए आपका परिश्रम बेजोड़ सिद्ध हुआ, जिसका अंकुर आज सर्वत्र दृष्टि-गोचर हो रहा है।
अपनी जर्जर, अस्थि-चर्मावशिष्ट देह-यष्टि को लिए हुए, अदम्य उत्साह के साथ घोरातिघोर कष्टों का निर्भीकता-पूर्वक सामना करते हुए आप गाँव गाँव और घर घर में सत्य, अहिंसा एवं विश्व-मैत्री का मन्त्रोच्चार करते हुए निरवलंब, नंगे पाँव, पैदल घूमते रहते थे। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास तथा अन्यान्य कष्टों अथवा असुविधाओं और विरोधियों तथा स्वार्थियों के कुचक्रों की ओर से सदैव उदासीन रह कर, राग
और द्वेष से मुक्त आप अपने कर्त्तव्य-पथ पर निर्विकार-भाव से अग्रसर होते रहते थे, और अपने शिष्यसमुदाय को भी एतदर्थ प्रेरित करते थे। वृद्धावस्था तथा घोर-कष्ट-सहन के कारण आपका शरीर जीर्णशीर्ण हो गया था, किन्तु अापके आत्मिक तेज की वृद्धि उत्तरोत्तर होती जाती थी। आपका जोश युवकों के जोश को भी मात करता था। मानापमान की ओर किंचिन्मात्र ध्यान न देकर, अपने सुख और दुःख से निरपेक्ष, अविचल मन एवं अनवरत परिश्रम द्वारा अापने लोक-हित के लिए जो सत्कार्य एवं भगीरथ प्रयत्न किए हैं, वे इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किए जाने योग्य हैं। पंजाब, राजस्थान एवं गुजरात के जैन-समाज की जो आपने महान् सेवा की है, वह तो कभी भुलाए नहीं भूली जा सकती। आपके स्थापित किए हुए अनेकानेक विद्यालय, गुरुकुल, कालेज तथा अन्यान्य संस्थाएं जैनसमाज व राष्ट्र को श्रापकी अनुपम देन हैं। जैन-समाज व भारत देश आपके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकेगा। आपने अनेक नव-यवकों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरणा की, और सहायता दी, प्राचीन जैन-ग्रंथ-भंडारों की
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