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आचार्य विजयवल्लभसूरी स्मारक ग्रंथ
यह भावना उदित करने में न तो हिंसक मार्क्सवाद ही सहायक हो सकता है और न कोरा आदर्श वाद। अगर इस प्रकार का वातावरण कोई बना सकता है तो वह महावीर का अपरिग्रहवाद जिसका प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक रूप श्रमण संघ के जीते जागते स्थागमूर्ति, वीतरागी तथा क्रियाशील सेवाभावी तपस्वियों में देखा जा सकता है। इस अस्तेय एवं अपरिग्रह के द्वारा जो शांति स्थापित होगी वह तलवार के बल पर स्थापित होने वाली न तो अकबर महान् की शांति होगी, न विश्वविजयी सिकन्दर जैसी लेकिन यह शांति तो ऐसी शांति होगी जिसके लिए "दिनकर" लिखते हैं
"ऐसी शांति राज्य करती है, तन पर नहीं हृदय पर
नर के ऊंचे विश्वासों पर,
श्रद्धा भक्ति प्राय पर || "
अंग्रेजी में एक लेखक ने लिखा है कि "The less I have the more Iam " अर्थात् हमारे पास जितना कम परिग्रह होगा, उतने ही हम महान् होंगे। सचमुच धनदौलत के पाने से, दीनदुःखी को लूटने से कोई महान् नहीं बनता । महान् बनता है त्याग से, अपरिग्रह और अस्तेय से । अगर हम सोने को भी छिपा छिपा कर, ममत्व भाव रखकर धरती में गाड़ रखेंगे तो वह मिट्टी बन जायगा । तालाब के पानी की तरह हम अगर धनतादौलत को इकट्ठी कर उसका यथोचित उपयोग न करेंगे तो वह सड़ जायगी। शेक्सपियर ने इसी बात को फूल के रूपक में कितना अच्छा कहा है ।
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"Sweetest things turn sourest by their deeds,
Lilies that faster smell far worse than weeds. "
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अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम Eat drink and be merry जैसे बावीक सिद्धान्त को छोड़कर " Live and let live " को आचरण में लाकर अपरिग्रहवाद का सम्बल लेकर विश्वमार्ग के पथिक बनें, फिर सचमुच शांति हमारे पैर चूमेगी।
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