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श्री आत्मारामजी तथा ईसाई मिशनरी है। उस का संबन्ध हृदय से है। क्योंकि एक डाक्टर ने जो अपने आप को ईसाई कहता है, मेरे किसी रोग की चिकित्सा कर दी तो उस का अर्थ यह क्यों हो कि डाक्टर मुझे अपने प्रभाव के अधीन देख कर मुझ से धर्म परिवर्तन की अाशा रखे? क्या रोगी का स्वस्थ हो जाना और उस के परिणाम से सन्तुष्ट होना ही काफ़ी नहीं ? फिर यदि मैं ईसाइयों के किसी स्कूल में पढता हूं तो मुझपर ईसाइयत की शिक्षा क्यों ठोसी जाए ? मैं धर्म परिवर्तन के विरुद्ध नहीं। किन्तु उस के वर्तमान ढंग के विरुद्ध हूं। अाजतक धर्मपरिवर्तन एक धन्धा बना रहा है। मुझे याद है कि मैंने एक मिशनरी की रिपोर्ट पढ़ी थी। उस में उस ने बताया था कि एक व्यक्ति का धर्म बदलने पर कितने रुपए का खर्च होता है। यह रिपोर्ट पेश करने के बाद उस ने 'भावी फसल' के लिए बजट पेश किया था।"
खेद की बात तो यह है कि भारत के स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी इस संबन्ध में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। २२ और २३ एप्रिल १९५३ ई० को केन्द्रीय लोक सभा में जो बहस हुई और भारत के गृहमन्त्री ने जो विज्ञप्ति दी, उस से यह सुस्पष्ट है कि ईसाई मिशनरी अब भी पुरानी चालों से काम ले कर लोगों को बहका रहे हैं। इस बहस से कुछ दिन पहले हमारे प्रधानमन्त्री पं० नेहरू ने अासाम की आदिम जातियों के प्रदेश में भ्रमण किया था। उन्हें पता चला कि विदेशी ईसाई मिशनरी समाज सेवा की आड़ ले कर सरकार के विरुद्ध विषैला राजनैतिक प्रचार कर रहे हैं। उन्हों ने इसकी निन्दा की। उस के बाद तत्कालीन गृहमंत्री डॉक्टर कैलाशनाथ कटजू ने कठोर शब्दों में उन्हीं प्रवृत्तियों का वर्णन किया। यही दशा उड़ीसा, मध्यप्रदेश और बिहार के कुछ प्रदेशों में है। विदेशी ईसाई मिशनरी उन स्थानों में स्कूल और औषधालय खोलने का नाम ले कर जाते हैं। लेकिन इस परदे के पीछे वे दूसरे धर्मों पर कीचड़ उछालते हैं। और वहां के निवासियों का धर्म परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं। इसके अतिरिक्त राजनैतिक दृष्टि से नयी दलबन्दी का प्रयत्न भी करते रहते हैं। केन्द्रीय सरकार का ध्यान इस ओर गया है और आशा है कि राजा राममोहनराय, स्वामी दयानन्द तथा श्री श्रात्मारामजी द्वारा प्रारंभ किए गए कार्य का शीघ्र ही मधुर परिणाम होगा तथा समाज सेवा के कामों को अपने धर्मप्रचार की सीढ़ी न बनाया जाएगा।
(लेखक के श्री आत्मारामजी के एक खोजपूर्ण अप्रकाशित जीवनचरित्र से)
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