Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 7
________________ [ ६ ] 'अर्थ' शब्द की परिभाषा दी है वह अधूरी है। वहाँ उक्त चारों इन्द्रियों के विषय को प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी मान कर ही उक्त व्याख्या की संगति बिठानी चाहिये। ___ मैंने इस विवेचन का प्रारम्भिक ढाँचा जयधवला कार्यालय में काम करते हुए तैयार किया था। इसके बाद वर्णी ग्रन्थमाला में काम करते हुए मुझे इसमें बहुत कुछ परिवर्धन और परिवर्तन करना पड़ा है। इससे यह विवेचन उस समय लिखे गये विवेचन से न केवल दूना हो गया है अपितु अनेक महत्त्वपूर्ण बिपयों की रूपरेखा में भी परिवर्तन हो गया है। मेरी इन्छा इसकी विस्तृत प्रस्तावना लिखने की थी, आवश्यक परिशिष्ट भी तैयार करने थे पर इस समय खुरई गुरुकुल की व्यवस्था की ओर चित्त बटा होने के कारण मैं ऐसा नहीं कर सका। तत्काल मूल सूत्रकर्ता के विषय में मैंने जो रूपरेखा उपस्थित की है आशा है उस ओर विद्वानों का लक्ष्य अवश्य जायगा। इस विवेचन के तैयार करने में मुझे अनेक महानुभावों से सहायता मिली है इसलिये मैं उन सबका तो आभारी हूँ ही, साथ ही मैं प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी का विशेषरूप से आभारी हूँ, क्योंकि उन्हीं के तत्त्वार्थसूत्र से मुझे यह प्रेरणा मिली है। ___मैं इस प्रयत्न में कितना सफल हुआ.हूँ यह कार्य मैं स्वाध्याय प्रेमियों पर छोड़ता हूँ। भाद्रपद शुक्ला ५ वी०नि० सं०२४७६ । फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री

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