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नियमसार अनुशीलन है। जो पर्याय चैतन्यस्वरूप आत्मा को विषय बनाती है, उस पर्याय
को परम आलोचना होती है।" __परम-आलोचना के अविकृतिकरण नामक भेद की चर्चा करनेवाली इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि पापरूपी भयानक जंगल को जलाने में समर्थ यह आत्मा; जब द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न एवं सहज गुणों के आवास इस भगवान आत्मा को मध्यस्थ भाव से भाता है, उसकी आराधना करता है; तब वह आराधक आत्मा अविकृतिकरणस्वरूप ही है- ऐसा जानना चाहिए। ___ तात्पर्य यह है कि उक्त आत्मा अविकृतिकरण नामक आलोचना करनेवाला है, परमालोचक है।।१११।। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज नौ छन्द लिखते हैं; जिसमें पहला और दूसरा छन्द इसप्रकार है -
(मंदाक्रांता) आत्मा भिन्नो भवति संततं द्रव्यनोकर्मराशेरन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः। मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ।।१६२ ।। अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणःशुद्धभावामृताम्भोराशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहः कलंकः। शुद्धात्मा य: प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति॥१६३।।
(हरिगीत) अरे अन्त:शुद्ध शम-दमगुणकमलनी हंस जो। आनन्द गुण भरपूर कर्मों से सदा है भिन्न जो।। चैतन्यमूर्ति अनूप नित छोड़े न ज्ञानस्वभाव को।
वह आत्मा न ग्रहे किंचित् किसी भी परभाव को।।१६।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२७