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कलश पद्यानुवाद
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(हरिगीत) मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर। हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है। वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य-चिन्तामूढ हों। कामात वे मुनिराज बाँधं पाप क्या आश्चर्य है ? ||१८०||
(रोला) कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं।
उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की॥ प्रबल भावना ही है प्रायश्चित्त कहा है।
ज्ञानप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ॥१८१|| अरे हृदय में कामभाव के होने पर भी।
क्रोधित होकर किसी पुरुष को काम समझकर॥ जला दिया हो महादेव ने फिर भी विह्वल। क्रोधभाव से नहीं हुई है किसकी हानि ?||६०||
(वीर) अरे हस्तगत चक्ररत्न को बाहुबली ने त्याग दिया। यदि न होता मान उन्हें तो मुक्तिरमा तत्क्षण वरते। किन्तु मान के कारण ही वे एक बरस तकखड़े रहे। इससे होता सिद्ध तनिकसा मान अपरिमित दुख देता||६|| अरे देखना सहज नहीं क्रोधादि भयंकर सांपों को। क्योंकि वे सब छिपे हए हैं मायारूपी गौं में । मिथ्यातम है घोर भयंकर डरते रहना ही समुचित। यह सब माया की महिमा है बचके रहना ही समुचित||६|| वनचर भय से भाग रही पर उलझी पूँछ लताओं में। दैवयोग से चमर गाय वह मुग्ध पूँछ के बालों में। खड़ी रही वह वहीं मार डाला वनचर ने उसे वहीं। इसप्रकार की विकट विपत्ति मिलतीसभी लोभियों को॥६३||
(सोरठा) क्षमाभाव से क्रोध, मान मार्दव भाव से।
जीतो माया-लोभ आर्जव एवं शौच से॥१८२।। १. आत्मानुशासन, छन्द २१६ २. वही, छन्द २१७ ३. वही, छन्द २२१
४. वही, छन्द २२३