Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 206
________________ १९९ गाथा ११५ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार प्रस्तुत करते हैं - जघन्य, मध्यम और उत्तम । यद्यपि उक्त तीनों प्रकार की क्षमा सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों में ही पाई जाती है; तथापि उनमें जो अन्तर स्पष्ट किया गया है; उस पर जब ध्यान देते हैं तो यह बात स्पष्ट होती है कि यह अन्तर मात्र इस बात का है कि किन परिस्थितियों में किस प्रकार के चिन्तन से उक्त क्षमाभाव प्रगट हुआ है। ___ जब कोई अज्ञानी किसी ज्ञानी को अकारण त्रास देने लगता है तो ज्ञानी सोचता है कि यह त्रास तो मेरे पुण्योदय से दूर हुआ है या होगा। इसप्रकार के चिन्तन के आधार पर जो क्षमा भाव प्रगट होता है; वह जघन्य उत्तमक्षमा है। ___ इसीप्रकार जब वह त्रास अकारण ही ताड़न-मारन की सीमा तक पहुँच जाता है, तब भी जब ज्ञानी उसीप्रकार के चिन्तन से शान्त रहता है, क्षमाभाव धारण किये रहता है तो वह क्षमा मध्यम क्षमा है। किन्तु जब उसीप्रकार की परिस्थितियों में वह यह सोचता है कि जान से मार देने पर भी परमब्रह्मस्वरूप अमूर्त आत्मा की अर्थात् मेरी कोई हानि नहीं होती। जो ज्ञानी इसप्रकार के चिन्तन के आधार पर समताभाव बनाये रखता है, समरसी भाव में स्थित रहता है; तब उस ज्ञानी के उत्तम क्षमा होती है।।११५|| ___ इसके बाद तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः - तथा श्री गुणभद्र स्वामी भी कहते हैं - ऐसा लिखकर चार छन्द प्रस्तुत करते हैं, जिनमें क्रोध से उत्पन्न होनेवाली हानि को प्रदर्शित करनेवाला पहला छन्द इसप्रकार है ( वसंततिलका) चित्तस्थमप्यनबुद्ध्य हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनंगबुद्ध्या। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न हार्यहानिः ।।६०॥' १. आत्मानुशासन, छन्द २१६

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