Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 258
________________ कलश पद्यानुवाद २५१ पुण्य-पाप के भाव घोर संसार मूल हैं। बार-बार उन सबका आलोचन करके मैं| शुद्ध आतमा का अवलम्बन लेकर विधिवत्। द्रव्यकर्म को नाश ज्ञानलक्ष्मी को पाऊँ ।।१५२।। (हरिगीत) मुक्तिरूपी अंगना के समागम के हेतु जो। भेद हैं आलोचना के उन्हें जो भवि जानकर॥ निज आतमा में लीन हो नित आत्मनिष्ठित ही रहें। हो नमन बारंबार उनको जो सदा निजरत रहें॥१५३|| जो आतमा को स्वयं में अविचलनिलय ही देखता। वह आतमा आनन्दमय शिवसंगनी सुख भोगता।। संयतों से इन्द्र चक्री और विद्याधरों से। भी वंद्य गुणभंडार आतमराम को वंदन करूँ ||१५४|| जगतजन के मन-वचन से अगोचर जो आतमा। वह ज्ञानज्योति पापतम नाशक पुरातन आतमा।। जो परम संयमिजनों के नित चित्त पंकज में बसे। उसकी कथा क्या करें क्या न करें हम नहिं जानते॥१५५|| इन्द्रियरव से मुक्त अर अज्ञानियों से दूर है। अर नय-अनय से दूर फिर भी योगियों को गम्य है। सदा मंगलमय सदा उत्कृष्ट आतमतत्त्व जो। वह पापभावों से रहित चेतन सदा जयवंत है।।१५६।। श्रीपरमगुरुओं की कृपा से भव्यजन इस लोक में। निजसुख सुधासागर निमज्जित आतमा को जानकर। नित प्राप्त करते सहजसुख निर्भेद दृष्टिवंत हो। उस अपूरब तत्त्व को मैं भा रहा अति प्रीति से।।१५७|| सब ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ शुध परभावदल से मुक्त है। निर्मोह है निष्पाप है वह परम आतमतत्त्व है। निर्वाणवनिताजन्यसुख को प्राप्त करने के लिए। उस तत्त्व को करता नमन नित भावना भी उसी की ।।१५८||

Loading...

Page Navigation
1 ... 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270