Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 247
________________ २४० नियमसार अनुशीलन वे कषायों को जीतते उत्तमक्षमा से क्रोध को। मान माया लोभ जीते मृदु सरल संतोष से॥११५|| उत्कृष्ट निज अवबोध अथवा ज्ञान अथवा चित्त जो। वह चित्त जो धारण करे वह संत ही प्रायश्चित्त है।।११६|| कर्मक्षय का हेतु जो है ऋषिगणों का तपचरण | वह पूर्ण प्रायश्चित्त है इससे अधिक हम क्या कहें।।११७|| अनंत भव में उपार्जित सब कर्मराशि शुभाशुभ । भसम हो तपचरण से अतएव तप प्रायश्चित्त है।।११८|| निज आतमा के ध्यान से सब भाव के परिहार की। इस जीव में सामर्थ्य है निजध्यान ही सर्वस्व है।।११९|| शुभ-अशुभ रचना वचन वा रागादिभाव निवारिके। जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है।।१२०॥ जो जीव स्थिरभाव तज कर तनादि परद्रव्य में। करे आतमध्यान कायोत्सर्ग होता है उसे ॥१२१|| व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन नहीं होता और व्यवहार के निषेध बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती। निश्चय के प्रतिपादन के लिए व्यवहार का प्रयोग अपेक्षित है और निश्चय की प्राप्ति के लिए व्यवहार का निषेध आवश्यक है। यदि व्यवहार का प्रयोग नहीं करेंगे तो वस्तु हमारी समझ में नहीं आवेगी, यदि व्यवहार का निषेध नहीं करेंगे तो वस्तु प्राप्त नहीं होगी। व्यवहार का प्रयोग भी जिनवाणी में प्रयोजन से ही किया गया है और निषेध भी प्रयोजन से ही किया गया है। जिनवाणी में बिना प्रयोजन एक शब्द का भी प्रयोग नहीं होता। - परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ५५

Loading...

Page Navigation
1 ... 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270