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गाथा १२१ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - -
“यहाँ शरीरादि परद्रव्यों में अपनापन छुड़ाकर निज आत्मा में निर्विकल्पपने अपनत्व स्थापित करने की प्रेरणा दी जा रही है । अथवा निश्चय कायोत्सर्ग का स्वरूप समझाया जा रहा है।
काया आदि परद्रव्य स्थिर नहीं है, नित्य नहीं हैं; अनित्य हैं, अस्थिर हैं। नित्य, स्थिर तो मेरा सहज स्वभाव है - ऐसा समझकर जो अपने आत्मा को ही निर्विकल्पपने ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग होता है।
देखिये, यहाँ काया के उत्सर्ग (त्याग) के साथ-साथ क्षेत्र-घर आदि समस्त परद्रव्य के त्याग की बात भी सम्मिलित कर ली है।
काया चैतन्य के स्वभाव से विपरीत जाति की है, जैसे - आत्मा अनादि-अनंत है और शरीर सादि-सांत है, आत्मा अमूर्तिक है और शरीर मूर्तिक है, आत्मा चैतन्य है और शरीर जड़मय है, आत्मा सहजज्ञान स्वरूप है और शरीर विभाव व्यञ्जनपर्यायरूप जड़ आकारवाला है।
आत्मा स्थिर है और शरीर अस्थिर है; - इसप्रकार शरीर मेरे से अत्यन्त भिन्न है।
देखो तो सही! व्यवहार क्रियाकाण्ड को आडम्बर कहा और उसके विविध विकल्पों को कोलाहल कहा - ऐसा कहकर समस्त हेयवृत्तियों का तिरस्कार किया है। अर्थात् छोड़ने योग्य समस्त विभाववृत्तियों को दूर फेंक दिया है। ____ अब कहते हैं कि जो जीव इन विकल्पों के कोलाहल से रहित होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है, वह जीव कैसा है? ' सहज तपरूपी समुद्र को उछालने के लिए जो चन्द्रमा समान है, वह जीव सहज कारणपरमात्मा को विकल्पों के कोलाहल से रहित होकर नित्य ध्याता है तथा वह सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि है। - ऐसे जीव को ही वास्तव में निश्चय कायोत्सर्ग है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००५-१००६ २. वही, पृष्ठ १००६
३. वही, पृष्ठ १००६-१००७