Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 204
________________ नियमसार गाथा ११५ विगत गाथा में कहा गया है कि कामक्रोधादि भावों के क्षय करने संबंधी ज्ञान भावना ही प्रायश्चित्त है और अब इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि वे क्रोधादि कैसे जीते जाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए॥११५ ।। (हरिगीत) वे कषायों को जीतते उत्तमक्षमा से क्रोध को। मान माया लोभ जीते मृदु सरल संतोष से ।।११५|| क्रोध को क्षमा से, मान को स्वयं के मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष से -चार प्रकार की कषायों को योगीजन इसप्रकार जीतते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यह चार कषायों को जीतने के उपाय के स्वरूप का व्याख्यान है। जघन्य, मध्यम और उत्तम के भेद से क्षमा तीन प्रकार की होती है। अकारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अकारण ही मुझे तकलीफ पहुँचाने का जो प्रयास हुआ है; वह मेरे पुण्योदय से दूर हुआ है – ऐसा सोचकर क्षमा करना प्रथम (जघन्य) क्षमा है। अकारण त्रास देनेवाले को मुझे ताड़न करने या मेरा वध (हत्या) करने का जो भाव वर्तता है, वह मेरे सुकृत (पुण्य) से दूर हुआ है - ऐसा सोचकर क्षमा करना द्वितीय (मध्यम) क्षमा है। __मेरा वध होने से अमूर्त परमब्रह्मरूप मुझे कुछ भी हानि नहीं होती - ऐसा समझकर परमसमरसीभाव में स्थित रहना उत्तम क्षमा है।

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