Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 265
________________ २५८ - नियमसार अनुशीलन त्रिविध योगों में परायण योगियों को कदाचित् । हो भेद की उलझन अरे बहु विकल्पों का जाल हो। उन योगियों की मुक्ति होगी या नहीं कैसे कहें। कौन जाने क्या कहे- यह समझ में आता नहीं।।१९४|| रेसभी कारज कायकृत मन के विकल्प अनल्पजो। अर जल्पवाणी के सभी को छोड़ने के हेतु से।। निज आत्मा के ध्यान से जो स्वात्मनिष्ठापरायण। हे भव्यजन उन संयमी के सतत् कायोत्सर्ग है।।१९५।। मोहतम से मुक्त आतमतेज से अभिषिक्त है। दृष्टि से परिपूर्ण सुखमय सहज आतमतत्त्व है। संसार में परिताप की परिकल्पना से मुक्त है। अरे ज्योतिर्मान निज परमातमा जयवंत है।।१९६।। संसारसुख अति अल्प केवल कल्पना में रम्य है। मैं छोड़ता हूँ उसे सम्यक् रीति आतमशक्ति से। मैं चेतता हूँ सर्वदा चैतन्य के सदज्ञान में। स्फुरित हूँ मैं परमसुखमय आतमा के ध्यान में।।१९७|| (हरिगीत) समाधि की है विषय जो मेरे हृदय में स्फुरित। स्वातम गुणों की संपदा को एक क्षण जाना नहीं। त्रैलोक्य वैभव विनाशक दुष्कर्म की गुणशक्ति के। निमित्त से रे हाय मैं संसार में मारा गया।॥१९८|| (दोहा) सांसारिक विषवृक्षफल दुख के कारण जान। आत्मा से उत्पन्न सुख भोगूं मैं भगवान ।।१९९।।

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