Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 189
________________ १८२ नियमसार अनुशीलन चौथा छन्द इसप्रकार है - . (स्रग्धरा) सानन्दं तत्त्वमञ्जञ्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् । शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं तद्वन्दे साधुवन्द्यंजननजलनिधौलंघने यानपात्रम् ॥१७४।। (रोला) आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो। वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम॥ मुनिमनतम का नाशक नौका भवसागर की। साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता ।।१७४।। जो आत्मतत्त्व आत्मतत्त्व में मग्न मुनिराजों के हृदयकमल की केशर में आनन्द सहित विराजमान है, बाधा रहित है, विशुद्ध है, कामबाणों की गहन सेना को जला देने में दावाग्नि के समान है और जिसने शुद्ध ज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनरूपी घर के घोर अंधकार का नाश किया है; जो साधुओं द्वारा वंदनीय और जन्म-मरणरूपी भवसागर को पार करने में नाव के समान है; उस शुद्ध आत्मतत्त्व को मैं वंदन करता हूँ। गुरुदेवश्री उक्त छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "अनन्तकाल से इस अज्ञानी जीव ने अपने शुद्ध अन्तःतत्त्व का कभी अनुभव नहीं किया। आचार्यदेव कहते हैं कि अन्तःतत्त्व को जानकर उसकी रुचि किये बिना उसमें लीनता नहीं होती और लीनता बिना मुक्ति नहीं होती; इसलिए सर्वप्रथम अपने अन्तर में अपने निजस्वरूप परमात्मशक्ति का विश्वास करना चाहिए। निजस्वरूप के विश्वास के जोर से भवसमुद्र तिरा जा सकता है। निजपरमात्मतत्त्व भवसमुद्र को तैरने के लिए नौका समान है - ऐसे परमात्मतत्त्व की यहाँ वंदना की गई है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५२

Loading...

Page Navigation
1 ... 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270