Book Title: Niyamsar Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 257
________________ २५० नियमसार अनुशीलन अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है। ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यवान में ॥ इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू । आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले || १४७|| जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में । अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है । सहजतत्त्व निज के प्रकाश से ज्योतित होकर । अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है || १४८|| सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो । भवसागर में डूबों को नौका समान है । संकटरूपी दावानल को जल समान जो । भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को ॥ १४९ ॥ जनमुख से है विदित और थित है स्वरूप में । रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में । मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है । उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन || १५० || पुण्य-पापको नाश काम को खिरा दिया है। महल ज्ञान का अरे काम ना शेष रहा है । पुष्ट गुणों का धाम मोह रजनी का नाशक । तत्त्ववेदिजन नमें उसी को हम भी नमते ॥ १५१ ॥ मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो । उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||५८|| किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो । आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ॥ अरे पूर्णतः उन्हें छोड़ने का अभिलाषी । धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ॥५९॥२ २. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १२५ १. समयसार, कलश २२७

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