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नियमसार अनुशीलन जानना पश्चात् शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मस्वरूप में नमना, परिणमना, उसकी भावना करना - यही मुक्ति का मार्ग है।'
पहले तो यह बताया कि भगवान आत्मा सत्यवाणी का भी विषय नहीं है। - ऐसा बताने के बाद निमित्त का ज्ञान कराने के लिए कहा कि श्रीगुरु के वचन प्रसाद से शुद्धात्मा को पाकर पात्र जीव शुद्धदृष्टिवाला होता हुआ, मुक्तिरूपी परमश्री को प्राप्त करता है। - ऐसा कहकर शुद्धदृष्टि के ऊपर वजन दिया है और उस समय निमित्त कौन होता है। इसका ज्ञान कराया है।
- आलोचना किसप्रकार होती है - इसकी यह बात है। आत्मा के स्वभाव-सन्मुख होकर शुद्धात्मा का अवलोकन करना संवर है, आलोचना है।शुद्धात्मा ने अपने सहज चैतन्यप्रकाश से रागरूपी अंधकार का नाश किया है। ध्रुव चैतन्यस्वभाव में राग-द्वेष आदि विकार है ही नहीं, विकार तो पर्याय में है; परन्तु जो पर्याय ध्रुवस्वरूप के सन्मुख होती है, उस पर्याय में से भी विकार का नाश हो जाता है।
त्रिकाली चैतन्य द्रव्य चैतन्यप्रकाशमय है, इसे स्वीकार नहीं करना ही घोर अंधकार है । ध्रुवस्वभाव को स्वीकार करते ही इस मोहान्धकार का नाश होता है।"
उक्त तीनों छन्दों में शुद्धात्मा और उसकी आराधना करनेवालों के गीत गाये हैं। प्रथम छन्द में कहा गया है कि संसार के मूल कारण शुभाशुभभाव हैं। इसलिए मैं जन्म-मरण का अभाव करने के लिए शुद्धात्मा की आराधना करता हूँ, उसकी भावना भाता हूँ, उसका ध्यान करता हूँ। दूसरे छन्द में कहा गया है कि यद्यपि यह भगवान आत्मा वाणी की पकड़ में नहीं आता; तथापि गुरूपदेश से आत्मज्योति को प्राप्त करनेवाला मुक्तिरमा का वरण करता है। इसीप्रकार तीसरे छन्द में रागान्धकार का नाशक, मुनिजनों के मन का वासी, परमसुख के सागर आत्मा के जयवंत होने की भावना भाई है।।१६८-१७०|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९३८-९३९