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नियमसार अनुशीलन करने की भावना रखना अथवा क्रोधादि भावों के क्षय, क्षयोपशम उपशमरूप से परिणमित होना ही निश्चय प्रायश्चित्त है।।११४|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं; जो इसप्रकार है
(शालिनी) प्रायश्चित्तमुक्तमुच्चैर्मुनीनां
कामक्रोधाद्यान्यभावक्षये च। किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येदात्मप्रवादे ।।१८१।।
(रोला) कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं।
उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की॥ प्रबल भावना ही है प्रायश्चित्त कहा है।
- ज्ञानप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ॥१८१|| सन्तों ने आत्मप्रवाद नामक पूर्व के आधार से ऐसा जाना है और कहा भी है कि मुनिराजों को कामक्रोधादि अन्य भावों के क्षय की अथवा अपने ज्ञान की उग्र संभावना, सम्यक्भावना ही प्रायश्चित्त है।
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"पुण्य-पाप की भावना छोड़कर सहज स्वभाव की भावना करने से विभावों का क्षय हो जाता है। - ऐसी भावना को भगवान ने उग्र प्रायश्चित्त कहा है - यह तप, चरित्र तथा धर्म है - ऐसा सन्तों ने जाना है और कहा है।"
उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि आत्मप्रवाद नामक पूर्व में समागत प्रायश्चित्त की चर्चा में यह कहा गया है कि काम, क्रोध आदि विकारीभावों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम करने की उग्र भावना के साथ-साथ ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा का सम्यक् ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही निश्चय प्रायश्चित्त है।।१८१॥
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९६९