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गाथा १२१ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
२३३ भलीप्रकार छोड़ता हूँ। तथा स्फुरायमान स्वयं के विलास से सहज परमसुखवंत चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मतत्त्व का मैं सर्वदा अनुभव करता हूँ।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन छन्दों का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यहाँ टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि हे जीव! यदि तुझे कायोत्सर्ग करना हो तो यह जयवंत वर्तते हुए सहजतत्त्व में आ जा। आत्मा के सिवाय अन्य देहादि पदार्थ जयवंत नहीं वर्तते । सहज ज्ञानपुंज स्वरूप वस्तुस्वभाव में सहजतत्त्व निमग्न है अर्थात् सहजतत्त्व स्वयं अपने स्वभाव में ही निमग्न है। _____ संसार में स्वर्ग के भव का, भोगभूमि के जुगलियों के भव का सुख तो कल्पनामात्र रम्य है और हीन है; उनमें कहीं भी वास्तविक सुख नहीं है। इसलिए ऐसे भव-भव के कल्पित सुख को मैं आत्मशक्ति से छोड़ता हूँ। किसी पर की शक्ति से भव के भाव का अभाव नहीं होता; परन्तु स्वभाव की शक्ति से ही भव-भव के कल्पित सुख का त्याग होता है। ___ मैं अन्तर्मुख आत्मशक्ति में एकाग्र होकर इन्द्रियों के प्रति होनेवाले
अनुराग को छोड़ता हूँ। और अपने चैतन्य चमत्कार मात्र स्वभाव का ही अनुभव करता हूँ; क्योंकि मेरा आत्मा सहज-स्वाभाविक परमसुखमय है, चैतन्यचमत्कार मात्र है तथा भव-भव का सुख कल्पित है। आत्मा का निज विलास प्रगट हुआ है। अतः मैं ऐसे आत्मा का ही सर्वदा अनुभव करता हूँ। देखो, इसका नाम भव-भव का प्रायश्चित्त है।"
उक्त छन्दों में आत्मा के शाश्वत स्वरूप का उद्घाटन करते हुए विषय-कषायों से विरक्त हो आत्माराधना करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। कहा गया है कि यह भगवान आत्मा सहजतेज का पुंज, मोहान्धकार से मुक्त, सहजप्रकाशनमात्र परिपूर्ण परमतत्त्व है। यह १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००९
२. वही, पृष्ठ १०११