Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 20
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८ इसप्रकार परवस्तु के प्रति प्रीति-अप्रीति के क्षणभंगुर परिणामों द्वारा जीव आकुल-व्याकुल रहा करता है। एक मात्र चैतन्य का सहज ज्ञान स्वभाव ही स्थिर और शांत है, वह प्रीति-अप्रीति रहित है - ऐसे स्वभाव की आराधना बिना अन्यत्र कहीं सुख नहीं है।" अंजना कहती है- “वाह बेटा ! तेरी मधुर वाणी सुनने से आनन्द आता है, जिनधर्म के प्रताप से हम भी ऐसी आराधना कर ही रहे हैं। जीवन में बहुत कुछ देख लिया, दु:खमय इस संसार की असारता जान ली। बेटा! अब तो बस, आनंद से एक मोक्ष की ही साधना करना है।" इसप्रकार हमेशा माँ-बेटा (अंजना और हनुमान) बहुत देर तक आनंद से चर्चा कर एक-दूसरे के धर्म-संस्कारों को पुष्ट करते रहते। राजपुत्र हनुमान, विद्याधरों के राजा प्रतिसूर्य के यहाँ हनुमत द्वीप में देवों के समान खेलता और आनंदकारी चेष्टाओं द्वारा सभी को आनन्दित करता – ऐसा करते-करते वह नवयौवन दशा को प्राप्त हुआ। कामदेव होने से उसका रूप-लावण्य परिपूर्ण खिल उठा।। भेदज्ञान की वीतरागी विद्या तो उसे प्रगट ही थी, इसके उपरांत आकाशगामिनी आदि अनेक पुण्य-विद्यायें भी उसे सिद्ध हो गईं। वह समस्त जिनशास्त्र के अभ्यास में प्रवीण हो गया। उसे रत्नत्रय धर्म की परम प्रीति थी, वह सदा देव-गुरु-धर्म की उपासना में तत्पर रहता था। अतः युवा बंधुओ! हनुमान का महान आदर्श लक्ष्य में रखकर आप भी उसके समान होने का प्रयत्न करो। . केवली के दर्शन से हनुमान को महान आनंद एकबार श्री अनंतवीर्य मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों तथा विद्याधरों का समूह आकाश से मंगल बाजे बजाते हुए केवलज्ञान का महान उत्सव मनाने आया। हनुमान भी आनन्द से उत्सव में गये और भगवान के दर्शन किये। अहा ! दिव्य धर्मसभा के बीच निरालम्ब

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