Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६४
गई हो.... वह लेकर तुम आये हो और ऐसा तो नहीं है कि मुझे रिझाने के लिए ये रावण का ही कोई मायाजाल हो ।"
- इस तरह शंका- आशंका करके सीता अनेक प्रश्न पूछने लगी ।
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तब हनुमान ने सीता से अन्य सभी बातें कीं । जटायुपक्षी की बात बतायी, रत्नजी विद्याधर की बात बतायी, इसतरह सर्वप्रकार से सीता को विश्वास उत्पन्न कराया और कहा
" हे बहन ! तुम मुझे अपना भाई ही समझो, तुम धैर्य रखना, लंका का राजा रावण सत्यवादी है, दयावान है, मैं उसे समझाऊँगा, वह मेरा वचन मानकर तुम्हें शीघ्र राम के पास वापिस भेज देंगे अथवा रामलक्ष्मण स्वयं आकर रावण को मारकर तुम्हें ले जायेंगे ।
ये सब सुनकर मंदोदरी कहने लगी- “ अरे हनुमान ! तू तो हमारा भानजा जमाई, लंका का राजा तुझे अपने भाई समान गिनता है । अनेक बार तुमने युद्ध जिताने में उनकी मदद की है। तू आकाशगामी विद्याधर होते हुए भी भूमि - गोचरी राम का दूत बनकर आया है ? रावण का पक्ष छोड़कर तूने राम का पक्ष लिया – ये तुझे क्या हो गया ?"
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तब हनुमान कहते हैं - “ अरे माता ! तू राजा मय की पुत्री, महासती और रावण की पटनारी; फिर भी ऐसे दुष्ट कार्य में रावण की दूती बनकर आई है - ये तुझे शोभा नहीं देता- ऐसे पापकार्य से रावण को रोकने के बदल तू उल्टी उसकी अनुमोदना एवं सहयोग क्यों करती है ? तेरा स्वामी विषयरूपी विष-भक्षण से मरण - सन्मुख जा रहा है, उसे तू क्यों नहीं रोकती ? क्या ऐसा अकार्य तुझे शोभा देता है ? तू राजा रावण की 'महिषी' (पटरानी) है, या सचमुच 'महिषी' (बड़ी भैंस ) है ?" अपना अपमान होने से मंदोदरी क्रोध में आकर कहने लगी "अरे हनुमान ! तुम तो अभी बालक जैसे हो और तुम राम के दूत बनकर लंका में आये - ये यदि लंकापति जान लेगा तो तुझे मार डालेगा, इसलिए वन में भटकने वाले राम की सेवा छोड़कर तू लंकापति की सेवा कर।
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तब सीता कहने लगी- "रे दुष्ट ! तेरा पति पापी है, उसका मरण
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