Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/२२ से रहित ही मेरा आहार है; परंतु मतवाले हाथी के जैसा भोगासक्त मेरा मन महाव्रत का भार उठाने में तो समर्थ नहीं। अरे, महाव्रत की तो क्या बात ? परन्तु श्रावक का एक भी अणुव्रत धारण करने की मेरी शक्ति नहीं। अरे रे ! मैं महा शूरवीर होने पर भी तप-व्रत धारण करने में असमर्थ हूँ। अहो वे महापुरुष धन्य हैं कि जिन्होंने महाव्रत अंगीकार किये हैं। वे श्रावक भी धन्य हैं कि जो अणुव्रतों को पालते हैं। मैं महाव्रत या अणुव्रत तो नहीं ले सकता तो भी एक छोटा सा नियम तो जरूर लेऊँ।"
- ऐसा विचार कर राजा रावण ने भगवान को प्रणाम करके कहा
“हे देव ! मैं ऐसा नियम लेता हूँ कि जो पर-नारी मुझे चाहती न हो, उसे मैं नहीं भोगूंगा । पर-स्त्री चाहे कितनी ही रूपवान क्यों न हो तो भी मैं बलात्कार करके उसका सेवन नहीं करूँगा।"
इसप्रकार अनंतवीर्य केवली के समक्ष रावण ने प्रतिज्ञा की। उसके मन में ऐसा था कि जगत में ऐसी कौनसी स्त्री है कि जो मुझे देखकर मोहित न हो जाय ? अथवा ऐसी वह कौन परस्त्री है, जो विवेकी-पुरुष के मन को डिगा सके ?
रावण के भाई कुंभकरण ने भी इस प्रसंग पर प्रतिज्ञा ली - कि "प्रतिदिन सुबह से उठकर मैं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक-पूजन करूँगा; तथा आहार के समय मुनिराज पधारें तो उनको आहारदान देकर पीछे मैं भोजन करूँगा। मुनि के आहार के समय से पहले मैं आहार नहीं करूँगा।"
इसप्रकार धर्मात्मा कुंभकरण (जो चरमशरीरी हैं तथा बड़वानीचूलगिरि सिद्धक्षेत्र से मोक्ष गये हैं) ने नियम लिया। दूसरे कितने ही जीवों ने भी अपनी-अपनी शक्ति अनुसार अनेक प्रकार के व्रत-नियम लिये।
इसप्रकार केवली प्रभु की सभा में आनन्द से धर्म श्रवण करके तथा व्रत-नियम अंगीकार करके सभी अपने-अपने स्थान पर चले गये।