Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६१ समझाऊँगा। मुझे भी बहुत दुःख होता है। सीता जबसे यहाँ आई है, तबसे वह निराहार है। आज ११ दिन हो गये, उसने कुछ भी खाया नहीं। अरे, वह पानी भी नहीं पीती; फिर भी विषयांध रावण को दया नहीं आती, उदास सीता प्रमद नाम के वन में अकेली बैठी-बैठी जिनेश्वर देव और राम के नाम का जाप जपकर महा मुश्किल से जी रही है।"
यह सुनते ही हनुमान का कोमल हृदय दया से भर गया; तुरंत ही वह जहाँसीता विराजतीथी, वहाँ आये....सम्यग्दर्शन की धारक महासती सीतादेवी को दूर से देखकर....जैसे जिनवाणी को पाकर भव्य जीव प्रसन्न होते हैं, वैसे ही सीता के दर्शन से हनुमान प्रसन्न हुये। शांतमूर्ति सीता उदासचित्त मुँह से हाथ लगाकर बैठी हैं, बाल बिखरे हुए हैं, आँखें
आँसुओं से भरी हैं, शरीर सूख गया है, दु:ख में डूबी होने पर भी आत्मतेज से उसकी मुद्रा चमक रही है; उसे देखते ही हनुमान मन ही मन सोचने लगे
“धन्य माता ! धन्य सीता ! इनके समान दूसरी कोई नारी नहीं, इनका संकट मेरे से देखा नहीं जाता। मैं जल्दी इनको यहाँ से छुड़ाकर श्रीराम से मिलाऊँगा, इसके लिए मुझे मेरे प्राण भी देना पड़ें तो भी दूंगा।"
जीवन में हनुमान ने सीता को प्रथम बार ही देखा था – धर्मात्मा को देखकर उसके अन्तर में वात्सल्य का भाव जागृत हुआ....सीता की एकाकी दशा देखकर वैराग्य भी हुआ। हनुमान विचारते हैं
____ "अरे रामचन्द्र जैसे महापुरुष की पटरानी अभी यहाँ लंका के वन में अकेली बैठी है....भले ही अकेली....परन्तु उसकी आत्मानुभूति तो उसके साथ है ना! अहा, चैतन्य की अनुभूति के समान जीव का साथीदार दूसरा कौन है....कि जो मोक्षपर्यंत साथ दे ? जीव को दुःख में या सुख में, संसार में या मोक्ष में दूसरा कोई साथीदार नहीं। जैसे अपने एकत्व स्वरूप में परिणमते मुनि वन में अकेले शोभा पाते हैं, वैसे ही सीताजी भी अकेली अर्जिका जैसी वहाँ सुशोभित हो रही हैं - ये उपवन भी सीता के प्रताप से प्रफुल्लित लगता है।"
क्षण भर ऐसा विचार कर हनुमान ने रामचन्द्रजी की अंगूठी ऊपर