Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/४७ सीता के प्रताप के सामने, रावण जैसे रावण की आँखों के सामने भी थोड़ी देर के लिए अंधेरा छा गया। लंका के बगीचे में अकेली सुकोमल सीता सती, अनेक उपद्रवों के बीच भी अपने शीलव्रत से रंचमात्र भी न डिगी - धन्य हो ऐसी महासती सीता को !
रावण का भाई विभीषण धर्मात्मा था और रावण के दरबार का खास सलाहकार था। उसे जब खबर पड़ी, तब वह सीता के पास आया। सीता रो रही थी, वह प्रथम तो भयभीत हो गई, परन्तु विभीषण ने कहा - “बहन ! तू डर मत, मुझे अपना भाई समझ, मैं रावण को समझाऊँगा।"
विभीषण ने रावण को बहुत समझाया – “सीता सती धर्मात्मा है, उसे सन्मान सहित श्री राम को वापिस सौंप दो - ऐसा अनीति का कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता।"
अभिमानी रावण ने उसकी एक बात नहीं मानी, उलटा ये कहने लगा – “मैं तीन खंड का स्वामी हूँ, इसलिए तीन खंड में जितनी सुन्दर वस्तुयें हैं, वे सब मेरी ही हैं।"
सीता बगीचे में अशोक वृक्ष के नीचे बैठी है। अनेक विद्याधर विविध सामग्रियों द्वारा उसे प्रसन्न करना चाहते हैं, परन्तु जैसे मोक्ष के साधक मुमुक्षु का मन संसार में नहीं लगता, वैसे ही सीता का मन उनमें कहीं नहीं लगता। जैसे अभव्य जीव मोक्ष सिद्ध नहीं कर सकते; वैसे ही रावण की दूतियाँ सीता को साध न सकीं, वश में न कर सकीं। रावण बारम्बार दूती से पूछता है, दूती द्वारा रावण ने जाना कि सीता ने आहारपानी भी छोड़ दिया है और वह किसी के सामने देखती भी नहीं है, पूरे दिन गहरे विचारों में गुमसुम बैठी रहती है - यह सुनकर रावण खेद-खिन्न हुआ और चिन्ता में डूब गया.... और निराश होकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा।
- अरे रे ! ढाई हजार सुन्दरियों का स्वामी भी विषयों की अग्नि में कैसा जल रहा है !! ऐसी दुःखमय विषय-तृष्णा से छूटकर जिसने निर्विषय चैतन्यतत्त्व के महा-आनन्द को साधा, वे महात्मा इस जगत में धन्य हैं।