Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 71
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६९ “अहो हनुमान ! तुम तो रावण के खास माने हुए सुभट ! रावण जैसे महाराजा की सेवा छोड़कर वन में भटकने वाले राम की सेवा करना तुम्हें क्या सूझा ? तुम केशरीसिंह के बच्चे होकर सियार के झुण्ड में क्यों चले गये ?" ___ हनुमान ने कहा – “रावण परस्त्री-लम्पट होकर दुष्ट कार्य कर रहा है, महासती सीता को उसने छेड़ा है, इस कारण उसका विनाश काल निकट आया है। राम-लक्ष्मण के पराक्रम की उसे खबर नहीं, थोड़े दिनों में ही वे सेना सहित यहाँ आ पहुंचेंगे और रावण को मारकर सीता को ले जायेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि इस सभा में बैठने वाले तुम सब न्यायवान और महा बुद्धिमान होने पर भी रावण को इस दुष्ट कार्य करने से रोकते क्यों नहीं ?" हे महाराज रावण ! अभी भी यदि तुम्हें सद्बुद्धि सूझे तो राम के आश्रय में जाओ और मानसहित सीता को वापिस सौंप दो। तुम्हारे महान कुल में तो बहुत प्रतापवंत राजा मोक्षगामी हुए हैं - ऐसे महान कुल में पाप द्वारा तुम कलंक क्यों लगाते हो ? तुम्हारे इस नीच कार्य से तो राक्षसवंश का नाश हो जायेगा, इसलिए अब भी चेत जाओ और सीता को वापिस सौंपकर राम की शरण लो। ये बात करने के लिये ही मैं लंका आया हूँ। हनुमान की बात सुनते ही रावण ने क्रोधित होकर कहा – “अरे, ये हनुमान भूमिगोचरी का (राम का) दूत बनकर आया है, इसे मरण का डर नहीं; इसे बाँधकर, अपमानित करके नगरी में घुमाओ।" इसप्रकार रावण की आज्ञा होने से सेवक जन हनुमान को बाँधकर नगर में घुमा रहे थे....कि हनुमान ने एकदम छलाँग मारकर बंधन तोड़ डाले। जैसे शुक्लध्यान द्वारा मुनिराज मोह-बंधन तोड़ कर मोक्ष में जाते हैं, वैसे ही विद्या द्वारा हनुमान बंधन तोड़कर आकाश में उछले....और पैरों के वज्र-प्रहारों द्वारा रावण के महलों तक को तोड़ डाला । जैसे वज्र

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