Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 05
Author(s): Haribhai Songadh, Swarnalata Jain, Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 69
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-५/६७ पाठको ! सीता और हनुमान की ये चर्चा सुनकर हमें रावण के ऊपर क्रोध नहीं करना चाहिए, धीरज से अपने ज्ञान को दीर्घदृष्टि प्रदान कर उनके स्वभाव एवं आगामी काल में होनेवाली पूर्ण शुद्ध पर्याय पर दृष्टि डालनी चाहिए। भविष्य में जब सीता का जीव चक्रवर्ती होगा तब यही रावण का जीव उसका पुत्र होगा और लक्ष्मण का जीव रावण का भाई होगा, अर्थात् सीता का दूसरा पुत्र होगा अब और जरा ज्ञान को आगे ले जाकर देखें तो वही रावण का जीव जब तीर्थंकर होगा, तब सीता का जीव उनका गणधर होगा। बोलो, अब तुम किस पर द्वेष करोगे ? जैसे रावण का जीव कुशीलादि रूप विराधना के भावों को छोड़कर आराधना के भाव प्राप्त कर मोक्ष पायेगा, वैसे ही तुम भी आत्मा की आराधना में लगकर मोक्ष पथ में प्रयाण करो। इस तरह सीता के साथ चर्चा के बाद हनुमान जाने के लिये तैयार हुए और सीता से कहा – “हे देवी! चलो हमारे साथ, तुम्हें श्री राम के पास ले चलूँ।" परन्तु सीता ने कहा - "रावण तो कायरों की तरह चोरी-चोरी मुझे उठाकर लाया था, परन्तु हे वीर ! राम-लक्ष्मण तो स्वयं के पराक्रम से रावण को हरा कर मुझे ले जायेंगे, इसलिए चोरी से छिपकर भागना उचित नहीं। भाई ! तुम जाकर राम को मेरे सब समाचार सुनाना और कहना कि मुझे लेने जल्दी आवें और तुम अपनी माता अंजना को मेरी तरफ से योग्य विनय कहना।" “हे हनुमान ! तुमने यहाँ आकर मेरे ऊपर भाईवत् उपकार किया है। वन में हमने गुप्ति-सुगुप्ति आदि मुनिराजों को आहार दिया था, देशभूषण-कुलभूषण मुनिवरों का उपसर्ग निवारण करके भक्ति की थीये सभी प्रसंगों को याद करके राम को मेरा कुशल-समाचार कहना और मेरी ये निशानी राम को देना...." - ऐसा कहकर गद्गद् होती हुई सीता ने सिर का चूड़ामणि

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