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आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श
107 करने से सभी जीव नरक में जाते हैं। पापकर्मों से भारी आत्माएँ नरक में अपने किये दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में जाती है। नरक से अधिक दुःख इस संसार में कहीं भी नहीं है। नरक से अधिक दुःख इस संसार में कहीं भी नहीं है।
श्वेताम्बर परम्परा के स्थानाङ्ग सूत्र में नरक में जाने के चार निम्नलिखित कारण कहे गये हैं
1. महारम्भ, 2. महापरिग्रह, 3. पञ्चेन्द्रियवध, 4. कुणिमाहार।
1. महारम्भ - जीवन व्यवहार के ऐसे साधन जिन साधनों के मूल में हिंसा-कर्म की अधिकता होती है। जो कर्म जितना हिंसा-प्रधान है वह जीव को उतना ही अधिक पतन की ओर ले जाता है। जीवन साधन दो प्रकार के हैं-एक वे जिनमें हिंसा की जाती है, और दूसरे वे जिनमें हिंसा हो जाती है। जिनमें हिंसा की जाती है, ऐसे कर्म ही महारम्भ कहलाते हैं। ____ 2. महापरिग्रह - परिग्रह का अर्थ है भौतिक पदार्थों का संचय। जीवन-व्यवहार उन्हीं पदार्थों पर ही तो निर्भर है। संचय बुरा नहीं संचित पदार्थों के प्रति अत्यधिक आसक्ति और अधिक से अधिक प्राप्त करने की लालसा बुरी है, क्योंकि आसक्ति एवं लालसा के बढ़ते ही मनुष्य भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य, हेय-उपादेय के विवेक को खो देता है। विवेक खोने पर व्यक्ति अधिक परिग्रह इकट्ठा करने में लग जाता है जो जीव को नरकगामी बनाता है।
3. पञ्चेन्द्रियवध - यद्यपि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय आदि सभी जीवों का वध निषिद्ध है, पाप कहा गया है परन्तु शास्त्रकार ने केवल पञ्चेन्द्रिय-वध को ही नरक का कारण कहा है, वह इसलिये कि पञ्चेन्द्रिय जीवों को मनुष्य मारते हैं, शिकार करते हैं, स्वपोषण के लिये उनके माँस का आहार करते है, अत: उन्हें मारा जाता है, मारने की भावना होती है। अन्य जीव चलते-फिरते भी मर जाते हैं, परन्तु उसमें उनको मारने की भावना नहीं होती, अतः भावना-विहीन मारने की क्रिया को नरक का कारण नहीं बताया गया। नरक का कारण है स्वार्थों की पूर्ति के लिये देव आदि के नाम पर उनका बलिदान, उनके माँस का व्यापार आदि, शिकार करना, माँस भक्षण करना इत्यादि कारण कहे गये हैं।
4. कुणिमाहार - कुणिम शब्द का अर्थ है मृत प्राणी का शरीर। कुछ लोगों का कहना है कि प्राणियों को मारना पाप है परन्तु मरे हुए या अन्य द्वारा मारे हुए या बाजार में बिकते हुए माँस को खाने से तो कोई हिंसा नहीं होती