Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan

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Page 380
________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 339 सिद्धात्मन् के स्वरूप का त्रिलोक में भी कोई अपलाप नहीं कर सकता। जो निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं उनमें स्वर्ण के समान तेज होता है और त्रैलोक्य शिखामणि की शोभा को धारण करते हैं। 22 सिद्धों के गुण सिद्धों में अनन्त गुण विद्यमान होते हैं जिनका वर्णन करना असम्भव है किन्तु उनके मुख्य आठ गुण हैं। - (क) अनन्त ज्ञान (ख) अनन्त दर्शन (ग) अव्याबाध सुख (घ) क्षायिक सम्यक्त्व (ङ) अव्ययत्व (च) अमूर्तित्व (छ) अगुरुलघुत्व (ज) अनन्त वीर्य । 23 (क) अनन्त ज्ञान 24 सिद्ध अनन्त ज्ञान के धारक होते हैं। यह गुण ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से प्रगट होता है। इससे वे सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव को जानते हैं। 25 (ख) अनन्तदर्शन 26 होता है। इससे वे सम्पूर्ण द्रव्य (ग) अव्याबाध सुख होती है। 28 है | 30 (घ) क्षायिक सम्यक्त्व होने से होती है। 29 ङ) अव्ययत्व - (च) अमूर्तित्व (छ) अगुरुलघुत्व होता है। 32 है। 34 - (ज) अनन्त वीर्य 33 - यह गुण दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से प्रगट क्षेत्र - काल- भाव को देखते हैं। 27 इस गुण की उत्पत्ति वेदनीय कर्म के क्षय से यह गुण नाम कर्म के क्षय से प्रगट होता है । 31 यह गुण का प्रगटीकरण गोत्र कर्म के नाश से अन्तराय कर्म के नाश से यह गुण उत्पन्न होता वस्तुतः यह सभी गुण आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, ये कहीं बाहर से प्रक्षिप्त नहीं होते हैं और नये ही उत्पन्न होते हैं, सिर्फ बात इतनी-सी है कि आठ कर्मों द्वारा यह आठ प्रमुख गुण आवृत्त हो जाते हैं, ढक जाते हैं और कर्मों के नष्ट होते ही यह गुण अनावृत्त होकर अपने सहज-स्वाभाविक रूप से - - इस गुण की उत्पत्ति मोहनीय कर्म के नष्ट यह गुण आयुष्य कर्म के नष्ट होने से प्रगट होता

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