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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण (घ) एकत्व अनुप्रेक्षा - मनुष्य अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, मेरी आत्मा अकेली है। इस हालत में उसका कोई साथी नहीं है। ऐसा विचारना एकत्व भावना है। 21 "एगो में सासओं अप्पा णाण-दसण-संजुओ" ज्ञान दर्शन से सम्पन्न मेरी आत्मा शाश्वत है अन्य सभी संयोग अस्थायी (हमेशा रहने वाले नहीं है) है, इस भावना से आत्म-प्रतीति दृढ़ होती है। ज्ञान दर्शन स्वरूप प्राप्त होने वाला आत्मा सदा अकेला रहता है। 22
(ङ) अन्यत्व अनुप्रेक्षा - शरीर कुटुम्ब, जाति, धन, वैभवादि से मैं अलग हूँ, ये मेरे नहीं, मैं इनका नहीं।।23 मैं शरीर से भिन्न हूँ, ऐसी अन्यत्व भावना के बल से शारीरिक सुख-दु:ख हमें दु:खी नहीं कर सकते। प्रायः शरीरिक सुख-दुःख के विचार में ही मनुष्य की सब शक्ति नष्ट हो जाती है। मैं कौन हूँ यह यदि समझ में आ जाए तो इस पवित्र ज्ञान के आलोक में मनुष्य आत्मा से भिन्न ऐसे शरीर के मोह में न पड़े।।24 अर्थात् शरीर, धन, परिवार से यह आत्मा भिन्न है, ऐसी अन्यत्व अनुप्रेक्षा है।125
(च) अशुचि अनुप्रेक्षा - यह शरीर अशुचि है रक्तादि निद्यं और घृणास्पद वस्तुओं से भरा है। इस अशुचि का विचार करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। इससे दो लाभ हैं एक तो यह कि इससे कुल एवं जातपात का मद तथा छुआछूत का ढोंग (अहंकार) दूर होता है। दूसरा लाभ यह है कि शरीर को अशुचि समझने से शारीरिक भोगों पर भी आसक्ति कम होती है। इस प्रकार शारीरिक अहंकार और आसक्ति को कम करने के लिए इस भावना का उपयोग करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि शारीरिक अशुचिता के नाम पर स्वच्छता के बारे में लापरवाही रखी जाये। 26 आदिपुराण में शारीरिक अशुचि को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि शरीर के नव द्वारों से सदा मल झरता रहता है। इसलिए यह अपवित्र है।।27
(छ) आस्रव अनुप्रेक्षा - आम्रवों के अनिष्टकारी और दुःखद परिणामों का चिन्तन करना। कर्मों का आगमन किन किन कारणों से होता है उन पर विचार करके उन कष्टदायी रूप का चिन्तन करना। 28 पुण्य और पाप रूप कमों का आस्रव होता रहता है। 29
(ज) संवर अनुप्रेक्षा - दुःख अथवा कर्मबन्ध के कारणों को आने न देने का अथवा उन्हें रोकने का विचार करना अथवा दुर्वृत्ति के द्वार बन्द करने के लिए सवृत्ति के गुणों का चिन्तन करना अर्थात् दु:खद आस्रवों को रोकने निरोध करने के सम्यक्त्व. व्रत, अप्रमादादि उपायों का चिन्तन करना। संवर अनुप्रेक्षा 30 और गुप्ति, समिति कारणों से कर्मों का ही संवर होता है।। 3 ।